तस्वीर: साभार गूगल |
ज़िंदगी कितने इम्तिहान लेती है। एक माह में पांच सयानों का साया सिर से उठ गया। इस बेरहम वक्त में कोई हादसे में चल बसा तो कोई स्वाभाविक मौत का ग्रास बना। ज़िंदगी की डायरी के चार पुराने पन्ने फटने तक बड़ा मजबूत करता रहा दिल कल जब पांचवां सबसे पुराना पन्ना फटा तो कलेजा फट गया। जिन्हें बस देखकर आप जीते हैं, जिनका होना ही काफी है। वो जब हंसते-मुस्कराते हैं और एक रोज दो रोटी ज्यादा खा लेते हैं तो आपकी भूख बढ़ जाती है। उनकी बीमारियों से वो कम आप ज्यादा जूझते हैं, जिरह बस इतनी सी कि वो कांपते हांथ, झुर्रियों में भी खिला चेहरा, बूढ़ी हड्डियों और सूख चुकी खाल के हाड़-मांस में धंसी रूह अपनी दो प्यारी सी चमकती आँखों से आपको निहारती रहे। जिनके हाँथ थामकर बड़े हुए और चलना सीखा।
ज़िंदगी के छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे हर काम में जिनकी गालियों में पगा बेहिसाब लाड़ मिला, वो जब चले जाते हैं तो मां-बाप के होते हुए भी अनाथों सा बोध होता है। बुजुर्गों का होना जिंदगी की चिलचिलाती धूप भरी दोपहर में बरगद की घनी ठंडी छाँव से ज्यादा है। वो सच में बरगद ही हैं जिनकी साखों से हम उपजे हैं। उनके चले जाने से घर और मन के वो कमरे सूने हो जाते हैं, जहां वो रहते थे।
यूँ तो उनकी अनमोल यादें घर के आंगन और दिल के बंद दरवाजों में छिटकी रहती हैं, मगर उनके चले जाने से उपजा शून्य बस हरवक्त आपका कलेजा चीरता रहता है। जीवन के ये खाली स्थान कभी भरा नहीं करते हैं। दादी का जाना रह-रहकर सालता है, उन्हें गए 2 साल हो गए और अब ये इतना बड़ा घाटा जो कभी पूरा न होगा। कभी-कभी लगता है लगातार सिर से उठता बुजुर्गों का साया अभागा बनाकर छोड़ेगा।
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© दीपक गौतम
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