मेरी आवारगी

तारीखें अजीब होती हैं : जे सुशील

दरिया किनारे घुमक्कड़ी करते 'जे' और 'मी".  
जे सुशील पेशे  से पत्रकार हैं...मन से यायावर और एक हद तक खब्ती हैं. 
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तारीखें....बहुत अजीब होती हैं. मरने की तारीख...पैदा होने की तारीख....तारीखें तय करती हैं आपका जीवन....आप कब पैदा हुए...कब शादी हुई. कब आपके बच्चे पैदा हुए...कब उनकी शादियां हुईं..इन्हीं तारीखों में जीवन गुज़र बसर करता रहता है.
कॉफी की तारीख....विदेश जाने की तारीख...प्रेम होने की तारीख.....किसी के मर जाने की तारीख.
मुझे तारीखें कभी याद नहीं रहीं....पैदा होने की तारीख पता है लेकिन अक्सर उस दिन याद नहीं रहता है. मैं चाहता भी नहीं कि कोई मुझे याद कराए कि मैं कब पैदा हुआ था. क्योंकि मेरे लिए सवाल ये है कि मैं पैदा क्यों हुआ हूं. इसका जवाब अभी तक नहीं मिला है मुझे.
आज भी एक तारीख है....किसी के ढहने की...कितनों के मरने की...किसी के मरने की....बाबरी, भोपाल, जयललिता...न जाने कितना कुछ हुआ है साल के इस आखिरी महीने की इसी तारीख को..
किसी ने पूछा था कि मी-जे वाले प्रोजेक्ट में तारीखें और स्लेट का क्या रोल है. टाइम एंड स्पेस है. मैं उन तारीखों और सलेट की भूमिका पर बहुत लंबा आर्ट क्रिटिक टाइप का पोस्ट लिख सकता हूं लेकिन मैं आर्ट क्रिटिक नहीं हूं...इसलिए वो काम किसी को करना है तो वो स्वतंत्र है.
मैं टाइम और स्पेस से इतर चले जाने का इच्छुक हूं.....कहीं दूर....इन दोनों से....
इस तस्वीर की तारीख भी याद नहीं है...जगह याद है...पांडिचेरी में कहीं है..
बिना तारीखों के जीवन सुंदर है...हर दिन एक सुबह हो...हर दिन एक शाम हो....रात हो...न हो तो बस तारीखें न हो..।

नोट: यह पूरा चिट्ठा जे सुशील जी की फेसबुक वॉल से साभार बिना सम्पादन के यहाँ चस्पा किया गया है।

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