मेरी आवारगी

वापसी (लघु कथा)


तस्वीर : यूपी-एमपी के बॉर्डर कलींजर के क्षितिज पर ढलते सूरज का दृश्य। चित्र हमारे झुनझुने से एक माह पहले का है। 

सुंदर को साल दर साल शहरों की खाक छानते हुए लम्बा वक्त बीत गया था। उत्तरप्रदेश के कानपुर से सटे एक छोटे से गांव तारनपुर से निकलकर वो आखिरकार महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में अपना अस्थायी ठिकाना बनाने में कामयाब हो गया था। उसका गांव में सीखा हुनर अब मायानगरी में परवान चढ़ रहा था। संुदर ने घरौंदों को और सुंदर बनाने के लिए लकड़ियों को तराशने का काम गांव में सीखा था। वो ऐसा कलाकार था, जो लकड़ियों और बांस से सिर्फ फर्नीचर ही नहीं सजावट की नायाब चीजें गढ़ देता था। सुंदर 1991 की होली मनाकर अपने कानपुर से बाहर निकला था और उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सुंदर ने अपनी इस सफलता की यात्रा में उड़ीसा, बंगाल, तमिलनाडु और कर्नाटक से होते हुए आखिरकार महाराष्ट्र में 2001 में ठौर पाया था, जहां उसे उसकी पहचान मिली। इसके पहले सुंदर ने सिर्फ दिहाड़ी मजदूरी ही की थी, उसे अनुभव या हुनर के आधार पर किसी ने काम नहीं दिया था।


संयोग से मुंबई में एक फर्नीचर बनाने वाले छोटे ठेकेदार ने उससे पूछा कि तुम क्या काम जानते हो ? तो सुंदर ने कहा बढ़ई हूं साहब !! लकड़ियों से कुछ भी गढ़ सकता हूं। बस यहीं से उसके काम की एक बेहतर शुरुआत हुई और आज वो एक फर्नीचर या लकड़ी के एंटीक बनाने की एक फर्म का मालिक था। सुंदर ने अपने बचपन के साथियों रहीम, कदम, विश्वास और बलबीर को भी अपने काम में हिस्सेदार बना लिया था। उसने गांव के कई जरूरतमंदों की मदद की और उन्हें अपने यहां काम पर रखा था।


आज सुंदर के जीवन में बीवी-बच्चे दोस्त-यार किसी चीज की कमी नहीं थी, जो उसे सबसे ज्यादा खलता था, वो ये कि उसके मां-बाप तारनपुर को छोड़ना नहीं चाहते थे। बस कभी-कभार ही मुंबई आते और कुछ दिन रहकर चले जाते थे। सुंदर ने गांव में मां-बाप की सेवा के लिए चार नौकर लगा रखे थे, जो उसके बूढ़े मां-बाप की सेवा में हर वक्त तैनात रहते थे। बुजुर्ग मां-बाप बुढ़ापे की तमाम तकलीफों को अकेले सह रहे थे। सेवादारों का सुख तो था, लेकिन बेटे-बहू और नाती-पोतों की कमी उन्हें खलती थी। शहर उन्हें रास नहीं आता था। यहां गांव में हर किसी की शक्ल उन्हें अपनी सी लगती थी और अजनीबियत से होने वाली ऊब से बचे रहते थे। यूं तो सुंदर साल में तीन से चार बार गांव जाकर उनके साथ रहकर आता था, हर साल की सर्दी और गर्मी दोनों मौसमों में कुछ रोज़ के लिए उन्हें भी बंबई ले आता था। लेकिन उसे हमेशा ये अफसोस रहा कि न तो वो कभी स्थायी तौर पर गांव लौट पाया ना ही उसके मां-बाप मुंबई में बस सके। बस उसे हर वक्त यही चिंता सताती रहती थी।


आज मुंबई के अपने एक बडे़ से बंगले के लाॅन में बैठा सुंदर अपनी बीती जिंदगी के यही पन्ने पलट रहा था कि सहसा हुई किसी आवाज ने उसकी तंद्रा तोड़ दी और वो अपनी चेतना में वापस लौट आया। उसने देखा तो मोबाइल की घंटी बज रही थी और स्क्रीन पर पापा काॅलिंग फ्लैश हो रहा था। काॅल रिसीव होते ही उस तरफ से रुंधे गले से आवाज आई कि सुंदर तुम गांव चले जाओ, तुम्हारी मां हमें छोड़कर चली गई है। सुंदर अपना जी पक्का करके अपने आंसू रोकते हुए बोला। पापा आप अपना ध्यान रखिये, हम अभी निकलते हैं। शाम के सात बज रहे थे। सुंदर एक घंटे बाद की फ्लाइट पकड़कर लखनऊ पहुंचा और फिर वहां से वाया कार गांव पहुंच रहा था। उम्र के 8 दशक पूरे कर चुके उसके बूढे़ और बीमार मां-बाप दवाओं और सेवा के बल पर टिके हुए थे, ये बात सुंदर अच्छी तरह जानता था। किसी अशुभ की आशंका से घिरा हुआ वो जब घर पहुंचा तो उसकी मां शांति की लाश के सिरहने पिता विश्वनाथ का शरीर लुढ़का पड़ा था। ये दृश्य देखकर सुंदर का शरीर ठंडा पड़ गया था, आज सुंदर की आखिरी बार गांव वापसी थी।

© दीपक गौतम
-8 मई 2020

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