मेरी आवारगी

व्यथा-कथा : अब रामबिहारी ख़बर नहीं लिख पाएंगे !

तस्वीर साभार गूगल : सांकेतिक चित्र

रामबिहारी (बदला हुआ नाम) पिछले कई साल से रोज की तरह अखबार के दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ रहे थे. वे कोरोना के जोखिमों के बीच पहले लॉकडाउन के कुछ समय बाद से ही अखबार के दफ्तर पहुंच रहे थे. वे जैसे ही सीढ़ियों से होते हुए इमारत के पहले माले पर बने दफ्तर में पहुंचे, उनकी कुर्सी के पास एक नोट चस्पा था. आपकी सेवाएं आज से समाप्त की जाती हैं. वे भागकर सम्पादक जी के केबिन के अंदर दाखिल हुए. इससे पहले  कि वे कुछ कह पाते संपादक जी ने कहा रामबिहारी जी आप अकेले नहीं हैं. संस्था ने सांध्य दैनिक ही अस्थायी रूप से बंद करने का फैसला ले लिया है. अब मेरे हाथ में कुछ नहीं है. सांध्य दैनिक की पूरी टीम से 10 लोगों को नौकरी से बेदखल कर दिया गया है.

संपादक जी बोले, अरे आप तो रिपोर्टर आदमी हैं, कल दफ्तर के न्यूज़ वायर पर समाचार एजेंसी भाषा की कॉपी तो आपने पढ़ी ही होगी. छोटे-बड़े तमाम तरह के लगभग 300 अखबार अकेले मध्यप्रदेश में बंद हो गए हैं. दिल्ली से लेकर बंगाल तक बहुत से बड़े मीडिया संस्थानों ने अपनी यूनिट बंद कर दी हैं. लॉकडाउन की गाज सब पर गिरी है. हम-आप अकेले नहीं हैं. पहले से भी प्रिंट मीडिया के हाल ठीक नहीं थे. अब लॉकडाउन में मीडिया मालिकों को घाटे वाले उपक्रम बंद करने का सबसे सटीक बहाना मिला है. शायद आप मजदूरों की खबरें कवर करते-करते भूल गए हैं कि हम बस मीडिया मजदूर ही हैं. श्रमिकों का दर्द तो आपने खबर में पिरोकर लिख भी दिया. आपका और मेरे जैसे देश के हजारों  छोटे-छोटे अखबारों में काम करने वाले लाखों पत्रकारों का दर्द कौन बयां करेगा. कुछ लोग सोशल मीडिया पर लिखकर इतिश्री कर लेंगे. हम शर्मिंदगी के मारे किसी से नहीं कह सकते कि कलमकार नहीं रहे, क्योंकि हमारे अखबार नहीं रहे. मैं तो झोला उठाकर गांव निकल रहा हूँ. पुरखों की कुछ जमीन है उसी पर खेती करूंगा. लिखने-पढ़ने या बोलने के लिए सोशल मीडिया से लेकर यूट्यूब तक कई मंच उपलब्ध हैं. ये कहने में बहुत आसान लग रहा है. जानता हूं बहुत कठिन समय है, लेकिन हिम्मत से काम लीजिये. आप अखबारी आदमी हैं. आपने दुनियाभर के दर्द और नाकामियां को अपनी खबरों में जगह दी है. लेकिन आज इस दुःख को अपनी आत्मा में घर मत करने दीजिएगा.

रामबिहारी अपनी आंखों में थोड़े आंसू और ढेर सी चिंताएं लिए अपना झोला उठाकर स्कूटर पर सवार होकर घर की ओर चल पड़े. वे रास्ते भर पिछले एक दशक से ज्यादा की अपनी नौकरी के बारे में सोच रहे थे. भोपाल में अखबार आये-गये कई दौर गुजरे. लेकिन रामबिहारी जी उसी सांध्य दैनिक में अपनी मुस्कान लिए कुछ पुराने साथियों के साथ खबरें गढ़ते रहे. उन्होंने कम तनख़्वाह में गुजारा किया. लेकिन संस्थान बदलने का निर्णय नहीं लिया. हालांकि उनके साथ काम करने वाले कई मित्र भोपाल से निकलकर आज देश के बड़े मीडिया संस्थानों में कार्यरत हैं. लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच भोपाल न छोड़ने की मजबूरी ने उन्हें सांध्य दैनिक से कभी बाहर ही नहीं निकलने दिया. उन्हें तो इस सेफजोन के अनसेफ होने की कभी उम्मीद भी नहीं थी. उम्र के पांच दशक पार करने के बाद अभी कुछ साल पहले ही तो उन्होंने कम्प्यूटर सीखा था. अब तो वे इंटरनेट पर काम की चीजें भी खोज लेते थे. पिछले साल से फेसबुक और ट्वीटर पर अपनी खबरों की कतरनें भी चस्पा करना शुरू किया था. वे लगातार यही सब सोच रहे थे कि उनकी स्कूटर एक खड्डे में पड़ गई. हालांकि थोड़े झटके खाने के बाद सम्भलते हुए रामबिहारी अपने घर पर थे.

पत्नी ने पूछा आप इतनी जल्दी कैसे आ गए? रामबिहारी घर पर रखे कम्प्यूटर को निहार रहे थे, जिसे वे सालों पहले अपने बेटे के लिए लेकर आये थे. बोले अब घर से ही दफ्तर का काम होगा. शुक्र है कि रामबिहारी जी के दोनों बच्चे सरकारी नौकरियों में हैं. लेकिन हर रामबिहारी जो पत्रकार है, उसके बच्चे सरकारी नौकरी में नहीं हैं. न ही सबके पास गांव में खेत हैं. आज देश में कई रामबिहारी जैसे पत्रकार सड़क पर हैं.

मैं रामबिहारी जी को बहुत करीब से जानता हूं. क्योंकि बीते सप्ताह ही उनका कॉल आया था. वे बड़े रुंधे हुए गले से बता पाये कि अपना अखबार बंद हो गया है. वे उस अखबार के बंद होने के लिए दुःखी हो रहे थे, जिसने उन्हें निकालने में एक पल की देर नहीं की थी. बहुत देर तक बात होती रही. उन्होंने मेरे साथ के कुछ और साथियों की खोज खबर लेने के बाद फोन रखते हुए कहा कि अब खबर नहीं लिखेंगे. क्योंकि वो अखबार बंद होने से पहले प्रवासी श्रमिकों की बदहाली पर अपनी आखिरी खबर लिख चुके हैं.

© दीपक गौतम
#lifeincoronadays

नोट : नाम, घटना और स्थान बदल दिए गए हैं. लेकिन आंकड़े और कहानी एकदम सच्ची है. अकेले मेरे जानने- पहचानने वाले मीडिया के साथियों की संख्या दो दर्जन से ज्यादा है. ठीक-ठीक आंकड़े निकालने बैठेंगे, तो देशभर में हजारों रामबिहारी खबरों की दुनिया से कोरोना काल में चुपचाप बेदखल कर दिए गए हैं.

यह ब्लॉग मीडिया स्वराज नाम की प्रतिष्ठित वेबसाइट में प्रकाशित हो चुका है।

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