मेरी आवारगी

दहशतों में भी जी लेते हैं...

अब गर्द इस कदर उड़ने लगी है हवाओं मेंबेईबीबेबी 
कि दहशतों में भी जी लेते हैं।
नफरतों का धुआं पहले ही तासिर है मुबारके-वतन में
हर सर्द फिजा में कुछ आग भी पी लेते हैं।
रह-रह के याद आता है वो जमाना यारों
जहां गर्दिशों में परिंदे आसमां नाप लेते हैं।
ये जमीं भले वही हो मगर अब आवाम बेचकर
लोग यहां अपना अमन खरीद लेते हैं।
ये जो तरासा गया है जहर देने का हुनर 'आवारा'
अब लोग अपने मुलक का गला-घोंट खुद का 
जीभर के जी लेते हैं।
एक तेरा हुजुर है कि गर्दिशे दौर में ये अमन पसंद 
अब दहशतों में भी जी लेते हैं।
यहां कोई नहीं है किसी के चैन का सानी
हर ओट से चोट का सौदा चंद सिक्कों में ही कर लेते हैं।
आवारा चाहते हैं ईमान मुकम्मल रहे उनका
इस पेट की आग में हर फर्ज जला देते हैं। 
कई और दबिस में मजबूरियों का शोर 
चाहते नहीं मगर नींदें खरीद लेते हैं।
कब बात करें चमन की उजड़ी फिजा में 
तपता हुआ लोहा समेट लेते हैं। 
तुम कहोगे हालत इतने बुरे नहीं काफ़िर
तो बता दो जरा कि धमाकों के ठौर में 
सब चैन से कैंसे जी लेते हैं। 
अरे थक गए हैं लोग झूठ ढोते-ढोते 
अब हर सच की लाश पर तन-तन के सो लेते हैं। 
बड़े सुकूं पसंद हैं लोग मेरे वतन के सब भूलकर किस्सा 
दहशतों में भी जी लेते हैं।
हर घूंट पीते हैं जहर का और कौर-दो-कौर 
भ्रष्टाचार की रोटी खाकर पेट भर खा लेते हैं।
अब किससे कहें इबारतें झूंठी कि हर बेईमान 
की कहानी अपनी समझ के सुन लेते हैं।
दर्द घुटता रहता है कहीं दफन सा सीने में
पीर को नशीली शराब समझ लेते हैं। 
बड़े सुकून पसंद हैं लोग मेरी फिजा के 
खुद चीरते हैं कपड़े फरेब के और नंगे होकर भी ढंक लेते हैं।
चलते हैं कदम-दो-कदम हर रोज मौत की ओर 
मगरूर होकर खुद के लिए हर घड़ी जी ही लेते हैं।
खींचते हैं दामन आबरू का और कपड़े वही कोरे 
धुल-धुल कर पहन लेते हैं। 
न हांथ जलता है इनका और ना ही घर का चिराग
हर दूसरे घर का दीपक बुझा के दिए जलते हैं।
उसकी दिवाली में धमाकों का शोर और ईद पर सिंवई का जोर 
हर आंख का आंसू कहीं बारिश में बदल लेते हैं। 
बड़े अमन पसंद हैं लोग एक मुस्कान की खातिर 
हजार निगाह रो लेते हैं...दहशतों में भी जी लेते हैं।






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