मेरी आवारगी

जिन्दगी तूने आवारा बना डाला

"इस आवारगी में जिये हैं इसी में मर जाना है, जरा तराश लेने दो इसे सारे जमाने को आवारा बनाना है"


घर से तो मैं भी नौ साल पहले अच्छा-भला निकला था, मगर इश्क के तेज़ाब और जिन्दगी के शबाब ने आवारा बना डाला। क्या पता था कि रगों में खून नहीं आवारगी बहेगी। मिजाज तो पहले से ही फक्कड़ था, लापरवाह और बेपरवाह भी होता गया मां-बाप से दूर रहकर। अम्मा रहती थीं तो मन की इतनी नहीं कर पाता था।

घर तो घर ही होता है, ये किराए के दस-बाई-दस के कमरे और मकानों में वो सुकून कहां जो गांव की धूल में है। कल की बात लगती है, 2003 में निकला था घर से दर-दर पसरी जिन्दगी की हकीकत और जीभर के जीने की चाह लिए। रश्क होता रहा खुद से जरा सा ओल्ड माइंडेड था। पूजा करना पसंद है, माथे पे चन्दन लगाता हूं। इस तरह के और कई खटकरम हैं जो दुनिया की निगाह में मुझे बुड़बक करार देते हैं।

पहली नजर में लोग पोंगा-पंडित वाला खयाल लाते हैं दिमाग में। बहुत कम लोग ही अपन को गहराई से ले पाते हैं। कई बार महसूस किया है, लोगों का एलीट होना और अपना गंवई समझकर टाल दिया जाना। ज्यादा आदत भी नहीं रही लोगों से घुलने-मिलने की, बचपन से अकड़ू और जिद्दी रहा हूं। घर में भी सबसे छोटा होने से लाड़-प्यार के चलते सुधार की गुंजाइश भी जाती रही।

खैर एक अटैची और घर वालों की जबर मोहब्बत के साथ कुछ और जज्ब किए जिगर में निकल पड़ा, हालांकि वो 'कुछ और' भोपाल की सरहदों को चूमने के बाद हवा ही हो गया। अब अफ़सोस होता भी तो उसे हावी नहीं होने दिया जाता। लंबे समय का ठिकाना तो भोपाल ही बना, उसके पहले तीन साल जमकर ख़ाक छानी मध्यप्रदेश की सड़कों की, अब आवारगी लिए फिरते हैं। जहां ठौर मिला वहीं जमकर ठोकरें खाई। झीलों के शहर में कोर्स की पोथियों के साथ इसक की जमात में भी हाजरी लगी। उस शहर के गली-घाट और चौराहों में अब भी अपनी मोहब्बत के किस्से पसरे हैं। सब ससुरा अपने-अपने चश्मे से देखते हैं। यूं तो चाहते नहीं थे कभी सरेआम करना, मगर हुस्न वाले भी जिगर वाले निकले। कहते हैं इश्क और मुश्क छुपता नहीं, तो छुपा भी नहीं। अब तलक बस वही जज्ब है रूहे-फिजा में।

जमकर घुमक्कड़ी और दो-चार पन्ने पढ़ाई-लिखाई के बाद रोटी कमाने का हुनर भी वहीं सीखा। जितना खोया वो कम है, क्योंकि जो मिला उसका कोई मोल नहीं। इसी पाने-खोने की फ़िराक में जिन्दगी को जीने और बेफिक्र होकर हर गम धुएं में उड़ाने का हुनर लगातार तराशा गया। कभी दोस्तों और आत्मीयों से भरा रहने वाला भोपाल एक समय इतना खाली भी लगा कि हमेशा नापसंद रही भीड़ भाने लगी। धीरे-धीरे रवां होती जिन्दगी में बहते दरिया के साथ भोपाल पीछे छूट गया। अगला बसर मिला है औरंगाबाद (महाराष्ट्र) इससे भी जरा-जरा यारी होने लगी है, क्योंकि इश्क तो तुमसे है 'भोपाल मेरी जान'। शब्दों के धंधे में खानाबदोशी का आलम रहता है, जो मुझे बेहद पसंद है। सोच-समझकर ही आए हैं यहां तो कोई शक सूबा नहीं है। न ही रश्क कि कहां जाएंगे। पता है वहीं दफ़न होगी जिन्दगी जहां मरने की जिरह है हमें।

बाबा का प्यार, दोस्तों की भरमार और फिजा में घुली वो जिन्दगी वहीं उसी शहर की हवा में बहती है। आलम ये कि उधार की सांसें लेने अब भी पहुंच जाते हैं। उन गलियों में दिन-रात ऐसे गुजरे है कि पता ही नहीं चला कब छह साल चट हो गए। अब कहीं और की फिजा से जीना मुनासिब ही नहीं हो पाता। वो बचपन की मोहब्बत, खर्च हो गया दोस्त, गायब हुआ जवान भाई, छूट गया प्यार और लंगोटिया यार सब दबा है अन्दर। अब जुस्तजू है तो बस शब्दों में कफन होने की। 'आवारा' इश्क में जरा सा निकम्मा हुआ और अब आवारगी का लिहाफ लिए फिरता हूं दर-बदर उनींदी आंखों में एक ख्वाब लिए, जो जागते हुए देखा था एक जोड़ा उन कारी और बेहद नशीली आंखों के साथ...।

मौला रूहों को सुकून अता करे और आवारगी बुलंद हो मालिक। ....फिर मिलेंगे जिंदाबाद।

- 15 जनवरी 2014

© दीपक गौतम

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