मेरी आवारगी

सिवाय शब्दों के कुछ भी नहीं मेरे पास

 पुरानीं डायरी के एक पन्ने से - 1 मई 2010  रात दो बजे
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कभी तकदीर को हमने तो कभी उसने ठोकरें ही मारी हैं... बचपन से इसी अकड़ में हैं, हमेशा जिंदगी से पढऩे की तलब रही है। किताबों से जिंदगी के फलसफे पढऩा पसंद नहीं है। जीने के इसी गुरूर ने आज तक बढऩे नहीं दिया। कभी अर्श तो कभी फर्श पे नजर आते हैं। मंजिल बहुत दूर नजर आती है, जिंदगी में कुछ भी अधूरा छोडऩा फितरत में नहीं, चाहे वो कलाम हो या किताब... आवारगी बहुत रास आती है, यही वो है जिसमें मैं रच-बस गया हूं या यूं कहूं कि ये मुझमें। शब्दों से पुराने जन्म का रिश्ता है ये मुझे बेहद अपने लगते हैं। सिवाय इनके कुछ भी नहीं मेरे पास.... खुशी हो या गम सब अपने में समेट लेते हैं, जब तक कहना न चाहो किसी से नहीं कहते। सुकून चाहिए नहीं और तन्हाई से मोहब्बत हो गई है। ठहराव कतई पसंद नहीं है, लेकिन जिंदगी हमेशा भागते रहने की इजाजत नहीं देती। कुछ भी महफूज नहीं है मेरे पास मेरे शब्दों के सिवाय। बहारें जितनी आईं उनके बाद आए वीरानों में ज्यादा सूकून मिला  है। सच कहूं तो वीरानगी ने ही संभाला है मुझे, कभी बिखरने नहीं दिया। जब केवल तन्हा होता हूं तभी खुश और खुद के साथ होता हूं। जिंदगी से ऐंठने की आदत सी हो गई है, तो शिकवा-शिकायत का मौका भी हाथ से चला गया है। अकड़ विरासत में मिली है, रगों में घुली है.. अब क्या करें उसका, हड्डियां राख होने तक महफूज रखने की जिरह है इसे। शायद बहुत कुछ बदला था किसी के लिए मगर काम न आया। हर वो चीज छोड़ दी जो हमें रास आती थी मगर कमबख्त हम ही रास न आए। आज भी उसकी यादों की तपिश महसूस करता हूं तो रगों में उसके घुले होने का एहसास होता है। दूर तो मैं शायद कभी हो नहीं पाया दो साल बीत गए वो मेरे साथ नहीं है मेरे जेहन को छोड़कर। कभी तबीयत से बाहर निकल आती है तो नशा करने का सुकून भी छिन जाता है। जिंदगी में पहली बार उससे मिलकर लगा था कि जिस्म की तपिश के इतर रूह की भूख को ही प्यार कहते हैं। कमबख्त ने कहा था खुद से प्यार करना साीख लो सब भूल जाएगा, मगर उसे चाहने के बाद खुद को भूल गए हैं, तो खुद से प्यार करने का सवाल भी बेमानी है। तड़प जब भी होती है नशे के आगाोश में जाने का दिल करता है मगर वहां भी तबीयत को सूकून नहीं। यूं तो दुनिया में और भी गम हैं मोहब्बत के सिवाय मगर किसी को सूकून से चाहने के बाद और कोई गम मोल न लिया हमने। अब क्या कहूं बड़ी खूबसूरत बला है इश्क... कमबख्त जी भर के जीना नसीब नहीं होता और मौत कहती है कि उसके दामन पर आएगी। उसकी खनकती आवाज मेरी रूह से ही उठती है...जब भी उभरता है वो हंसता चेहरा, तो बेमतलब सी जिंदगी को जीने की वजह मिल जाती है। बस कलम ही साथ है मेरे हर पल जो सब कुछ बांट लेती है, और ये शब्द मेरे बेहद अपने हैं। इनके सिवाय जिंदगी में जैसे कुछ बाकी न रहा हो अब। ये निजी हैं बस मेरे अपने किसी से कुछ नहीं कहते कोई फरेब नहीं इनमें, मेरे गम और खुशी दोनो को अपने अंदर समेट लेते हैं, जब तक न चाहूं किसी से नहीं कहते। ये मेरे सबसे बड़े वफादार और राजदार हैं...आवारा।


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