मेरी आवारगी

यकीन नहीं होता...शायद उसने भी चाहा हो मुझे !

डायरी का एक और पन्ना- 22  जून 2011  रात चार बजे 
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आंखों में नींद नहीं है और घड़ी सुबह के पांच बजा रही है। यूं तो रोज ही रात इतनी काली होती है, लेकिन आज जैसे ये घना अंधेरा छटने का नाम ही नहीं ले रहा। न जाने क्या लगी थी वो कि कम्बख्त आज तक नहीं छूटी...शायद जिंदगी में कुछ भी बेवहज नहीं होता। आज कुछ ऐसा ही लगा उसे वर्षों बाद सुनकर...पूरे दो साल 18  दिन बाद उसे करीब से सुना है। कभी गजल की तरह गुनगुनाता था उसे। आज आवाज सुनी तो तबीयत फिर मचल उठी है। या यूं कहूं कि कुछ नासाज होने लगी है... लगता है ज्वर जोर पकडऩे वाला है। पूरे बदन में अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही है, मगर रूह में सुकून है। एक बार फिर इन तीन घंटों में कई बार तड़प-तड़प कर मरा हूं बहुत दर्द महसूस कर रहा हूं। आंसुओं ने न जाने कब से साथ छोड़ रखा है अगर बह जाते तो कुछ गम बांट लेते मेरा। दिल के किसी कोने में दफन कर दी थी जो किताब आज उसके पन्ने फिर हवा के झोंकों से उडने लगे हैं। घडी की सुई उस बीते वक्त पे जैसे ठहर सी गई हो। सब कुछ साफ नीले पानी की तरह नजर आ रहा है। या खुदा तेरी पनाह में ले ले मुझे उस सूकून में जाने को दिल गवारा नहीं करता। ये इश्क की तासीर ही ऐसी है कि मेरी तबीयत नासाज हो जाती है। सच कहूं तो एक बार फिर से इस गुनाहे अजीम में डूब जाने को जी करता है। या मेरे मालिक उसे हमेशा खुश रखना। तेरी रहमत के लिए शुक्रिया मेरे रहबर कि तूने उसे महफूज रखा शायद मेरे लिए। मेरा इतना बेरहम होना मुझे वाजिब नहीं लगता, मगर क्या करूं उस गली में जाने को फिर जी नहीं करता। शायद अबकी बार तबाह होने के लिए ही जाऊंगा। उसका जिंदगी से जाना बर्दास्त भी है शायद, मगर उसकी तासीर नहीं। मुझे उसके साथ ऐसे ही जीने दे मालिक जिंदगी के हर रंग में घुली हुई। न जाने क्यों बहुत डर लग रहा है... अबकी बार लौट न सकूंगा जिंदगी के इन गलीचों में वापस उसके जाने के बाद।  हर बार की तरह मुझे छोड़कर जाने के लिए मत आना रहमदिल, अब जीना मुनासिब न हो सकेगा तेरे बगैर। यूं तो सबकी जिंदगी में ख्वाब अधूरे रह जाते हैं। मंजिल मिलती नहीं और तलाश ताउम्र बनी रहती है। मगर उस प्यासे का क्या कहिए, लहरें जिसके पास से मचल के इतराती हुई निकल गईं...। यकीन नहीं होता कि मैं उसे याद हूं शायद उसने भी गुजरे सालों में कभी प्यार किया हो मुझसे....।

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