धीरे-धीरे खर्च होती जिन्दगी की किताब के 28 पन्ने वक्त की बयार में कब उड़ गए पता ही नहीं चला। सम्भवत: इतने ही और बाकी हों अपनी किताब खत्म होने के लिए, या फिर दो-चार पेज आगे पीछे हो सकता है आंकड़ा अपनी बची हुई जिन्दगी की गणित का। यूं तो अपनी गणितें कभी ठीक नहीं बैठीं अब तक के सफर में, कमबख्त पाने की चाह में खोता बहुत रहा है 'आवारा'। कमजोर गणित से भागकर विषय जीवविज्ञान कर लिया था। दिल उचाट हुआ तो रमते-रमाते आर्ट पढ़ा और फिर पत्रकारिता से रूबरू हुआ। कहने-सुनने और पढ़ने-समझने में हमेशा कमजोर रहा हूं। किताबी ज्ञान न के बराबर है, गलतियों से हमेशा सीखने की अकड़ में सब कुछ खोकर खुद को तलाशते रहे हैं सदा। अपना इतिहास और भूगोल भी कमजोर ही है। और राजनीति तो बहुत झेलाऊ लगती है, जबकि गहरे तक घुसी है आजकल। ससुरा रिश्तों तक की बुनियाद हिली हुई है। हां महसूसने में शायद खुद को अच्छा पाता हूं। इसीलिए गाहे-बगाहे कुछ कागद कारे करता रहता हूं। ये कुछ फर्जीवाड़ा है अपनी चार पल की जिन्दगी में गुजर चुके दो पलों का।
मुद्दा ये है कि बहुत कुछ बदल चुका है सिवाय रगों में बहती आवरगी के। आगे और भी तेजी से बदल जाने की पूरी उम्मीद है। इधर और ज्यादा भुलक्कड़ हो गया हूं, नींद तो पहले ही भूल आया हूं उन आंखों में सदियों की सो अब चैन से सोना भी नसीब नहीं होता। कुछ ख़्वाब पाले थे उन्हीं दो जोड़ा आंखों ने एक साथ, अब एक जोड़ी नयनों का तो पता नहीं। हमने अपनी निगाहें उसी सपने पर टिका दी हैं। सफर बस शुरू ही हुआ है कि रह-रह के जिन्दगी की पुरानी कतरनों वाले गठ्ठर से वो गंध अक्सर हवा में घुल जाती है। कभी महकता है जेहन का कोना-कोना तो कभी शून्य में निगाहें टिक जाती हैं। यकीनन दुःख साहस देता है और दर्द मुक्ति। बहुत कुछ अनकहा रह ही जाता है तो फिर कभी कहेंगे। अलविदा न कहूंगा क्योंकि मिलते रहेंगे इसी दुनिया में कभी-कभी।
फोटो-शारदा माता मैहर के दर में हाल ही का। छुटका कब उतार लिया समझ ही नहीं पाए।
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