औरंगाबाद के श्मशान में एक रोज आवारा रूहों के साथ / तस्वीर : अरुण पांडेय |
यकीनन वो सब अजनबी थीं मेरे लिए हर बार की तरह, मगर इस बार भी कुछ साबुत रूहें रात में आने का आमंत्रण दे रही थीं, अगर रात को अखबारी तामझाम से निकलकर कभी वक्त नसीब हुआ तो जाना जरूर होगा यहां भी पुराने शहरों की तरह। किसी के चीखने की आवाज के साथ मध्यम हवा के झोंके ने जब कान झंकझोरे तो मेरी तन्द्रा टूटी और दुनिया में साबुत होने का खयाल फिर ताजा हो गया। इस अनंत मौन के बीच अधूरी ख्वाहिशों का रोना मैंने पहले भी सुना था। सबसे पहली बार कोई पन्द्रह साल की उम्र रही होगी, जब मुर्दे की आग से जाड़े में तपिस महसूस की थी।
अचानक बीते वक्त पर ध्यान लगा तो हर मंजर हरा हो गया। आज पुरानी डायरी से निकालकर ये वाकया शब्दों के सहारे साझा कर रहा हूं। साल 1997 की दिसंबर वाली एक रात (जब गांव में वक्त कटता था स्कूल, दोस्तों, घर, गाय चराने और खेतों की फसलें पालते-पोसते ) घर से खेत की ओर निकला था, वहां रैन-बसेरा करने के लिए। रास्ते में गांव का एक श्मशान पड़ता था, दूर मेड़ से ही उसी दिन देर शाम जलाए गए किसी मुर्दे की आग ठंडी होती दिखाई दे रही थी।
वो एक ही रास्ता था, जहां से होकर मेरे खेत की मंजिल मिलनी थी। करीब पहुंचते ही दो परचित चेहरे मुर्दे के पूरा जलने का अहतराम कर रहे थे। उनके इस कृत्य को मैं भी दुस्साहसी नजरों से देखता हुआ वहीं थम गया। रात के नौ बज रहे होंगे वो दो साबुत लोग चिता की रही-सही आग से बीड़ी जलाने की फिराक में थे। ठंड का आलम ये था कि पुराने लबादे के अंदर कई परत कपड़े होने के बाद भी ठिठुरन कायम थी। धुएं से मेरा प्रेम जग जाहिर था, उन्होंने तीसरी बीड़ी मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा कि जा जला ले। इससे पहले कि उनके होंठ धुआं फेकते मैं उस ओर बढ़ा। धीमी पड़ रही लपटों के बीच हड्डियों के चिट-पुट चटकने और ताजा मांस के जलने की बू हवा में घुली हुई थी। डर को काबू करते हुए लबादे से बाहर हाथ निकालकर जैसे ही एक अंगार पर बीड़ी का अगला सिरा ठूंस रहा था, उन परचितों ने बड़ी सफाई से मुझे एहसास हुए बिना कुछ डरावनी आवाजें निकालीं। मैं डरकर चींखते हुए बीड़ी वहीं छोड़ चिता से कुछ दूर खड़े उन जिंदा लोगों की ओर लपका।
इससे पहले की थरथराहट में उनसे कुछ बोलता वो गांव के गबरू जवान जो वहां श्मशान के नजदीक उनके खेतों में पानी देने के लिए रात बिता रहे थे, जोरदार ठहाका लगाकर हंस पड़े। मुझे समझते देर न लगी कि ये एक बेहूदा मजाक था। कम उम्र, रात के सन्नाटे और जिज्ञासा के भावों के साथ एक अपनेपन के भरोसे ने मेरे होंठ सिल दिए,चाहकर भी मैं उन्हें गालियां न दे सका। तभी उनमें से एक धुआं उगलते हुए बोला सुन रे छोटे धुआंबाज होने के लिए चिताओं से उठता धुआं सूंघना आना चाहिये समझा। जा फिर से जा डर निकाल दिल से वो जो भी था, अब जल चूका है। जिन्दगी में हमेशा याद रख इंसान से बड़ा भूत कोई नहीं होता और न ही मरने के बाद कोई आदमी भूत बनता है। मैंने रहा-सहा साहस बटोरा और ठिठुरन से निजात पाने के लिए फिर नई बीड़ी जलाने उधर धीरे-धीरे ठंडी हो रही चिता की आग की ओर बढ़ लिया। एक बार जो उस चिता की आग से बीड़ी जलाई जमकर धुआं फेंका है अब तलक लगातार 18 साल, जब तक तौबा नहीं कर ली इससे।
उस रात साहस भले ही बटोर लिया हो मैंने और जरा सा सख्त हो चला था दिल, मगर सच यही है कि सारी रात खेत में बने उस झोपड़े में नींद का एक पल नसीब नहीं हुआ। करवटें बदलते हुए खेत के वीराने में मुझे केवल शियारों का रोना ही नहीं कुछ और भी सुनाई दे रहा था। वो चिता जिसकी राख में दबे अंगार ने मेरी बीड़ी जलाई थी, उसकी गर्द गहरे तक मेरे अंदर भर गई थी। हर सांस के साथ वो मांस की बू रह-रह के अंदर जा रही थी। कुछ था जो मुझे झकझोर रहा था, शायद रामभुअन मरने के बाद कुछ कह रहा था। उसकी चिता भले ठंडी हो गई थी, चिंताओं ने उसका साथ अब भी नहीं छोड़ा था। सोने की फिराक में भोर के करीब पांच बजे एक झपकी लग ही गई। सुबह नौ बजे जब जागा तो चार घंटे की नींद जो किसी का अधूरा सपना थी, फिर ताजा हो गई। पिता जी हमेशा हमराज रहे हैं। उनसे सारी आप बीती कहने के बाद उन्होंने उस सपने को धीरे-धीरे साकार किया। तब जाकर वो आवाजें मेरे कान से गायब हुईं। न जाने क्या है कि उस रूह ने अब तक मेरा साथ नहीं छोड़ा है, साए कि तरह पीछे रहती है, किसी अपने हमदर्द के साथ। इन आवाजों को सुनने का नशा परवान चढ़ता रहा है और अब आलम ये है कि इन्हें सुने बिना मुझे नींद नहीं आती।
नादां दिल उस एक वाक्ये के बाद इतना मजबूत हुआ कि जब तक गांव में रहा हर चिता की आग ठंडी होती देखी मैंने। मौके मिले तो अकड़े मुर्दों पर खूब लाठियां भांजी उन्हें सुकून से जलाने के लिए। फिर चाहे वो नाऊ कक्का की लाश हो या पड़ोस की काकी का शव सब जलाकर राख किये, गांव के कुछ मुर्दा जलाओ विशेषज्ञों के दल के मार्गदर्शन में। जब तक बचपने में था मजे के लिए मुर्दों के सिर फोड़े, बड़ा हुआ तो जरा-जरा सा शौक हो चला। गांव के जो श्याने ये काम करते थे उनका कहना था, बहुत रूहानी और अलहदा काम है मुर्दे जलाना या दफनाना। वो कहते थे मालिक के हुजूर में मुर्दे जलाना प्रकृति का उधार चुकाने जैसा है।
गांव की मुर्दा जलाओ समिति के प्रमुख नत्थू बब्बा और गिरिजा कक्का अक्सर कहते कि ये भी एक संस्कार है बेटा। पीढ़ी दर पीढ़ी केवल गांवों में हस्तांतरित होने वाला जो मुर्दा शांति का काम करता है। आज भी गांव में हर चिता की राख ठंडी होने और मुर्दे के पूरा जलने तक दो कठोर दिलवाले लोग रुकने का रिवाज कायम है। वो संस्कार अब भी जिंदा है। उन श्यानों का मानना था कि अधजला मुर्दा प्रकृति पर उधार रह जाता है।
मरघट का मेरा वो ज्ञान और ये सारी कहानी एक पल में ताजा हो गई, याद आया मेरा चलाया हर एक डंडा उन मुर्दों पर। जब औरंगाबाद के इस कब्रिस्तान पर लिपटिस के पेढ़ से सटा खड़ा था। आधे घंटे मरघट में ठहरकर बस यही सोचता रहा कि ( अब तक हर शहर जहां भी मैं रहा और जितने अंतिम घाट घूमे ) मालिक में जज्ब हुई इन रूहों का दर्द क्या जीते जी कम हुआ होगा ? शायद कोई तो होगा जो हर काम पूरा करके मरा हो, जिसकी ख्वाहिशों ने मौत के बाद उसे सुकून से सोने दिया हो कब्रों के अन्दर। सवाल वहीं है जस का तस।
अब भी हर शहर के मन्दिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे और मरघट जरूर घूमता हूं कि वहां मिलने वाली शांति और मरघट के सन्नाटे में महसूस होने वाला बारीक सा फर्क मुझे समझ आ जाए। जितना भी ऐसा भ्रमण हुआ है उससे इसी नतीजे पे पहुंचा हूं कि खुदाई दयार से ज्यादा सुकून मरघट में है। ये और कि उन रूहों की अधूरी ख्वाहिशों का दर्द, उन्हें ठीक से ना सुन पाने का बहुत मलाल है। इधर कुछ-कुछ आवाजें समझने लगा हूं...हर शहर में कुछ साबुत रूहें मिल ही जाती हैं, जो जी भर के बात करना चाहती हैं, कुछ तो मुझे सुनने को भी आमादा रहती हैं। फिलहाल कोशिश जारी है, आवारगी के हरम में एक दिन ये हुनर भी तराश लेंगे आवारा कि वो दो आवाजें जो अब तक हर श्मशान और कब्रिस्तान में सुनता आया हूं...बस मुझे ही क्यों सुनाई देती हैं।
अब भी हर शहर के मन्दिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे और मरघट जरूर घूमता हूं कि वहां मिलने वाली शांति और मरघट के सन्नाटे में महसूस होने वाला बारीक सा फर्क मुझे समझ आ जाए। जितना भी ऐसा भ्रमण हुआ है उससे इसी नतीजे पे पहुंचा हूं कि खुदाई दयार से ज्यादा सुकून मरघट में है। ये और कि उन रूहों की अधूरी ख्वाहिशों का दर्द, उन्हें ठीक से ना सुन पाने का बहुत मलाल है। इधर कुछ-कुछ आवाजें समझने लगा हूं...हर शहर में कुछ साबुत रूहें मिल ही जाती हैं, जो जी भर के बात करना चाहती हैं, कुछ तो मुझे सुनने को भी आमादा रहती हैं। फिलहाल कोशिश जारी है, आवारगी के हरम में एक दिन ये हुनर भी तराश लेंगे आवारा कि वो दो आवाजें जो अब तक हर श्मशान और कब्रिस्तान में सुनता आया हूं...बस मुझे ही क्यों सुनाई देती हैं।
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