मेरी आवारगी

530 साल से जारी है 20 रुपए का लंगर !

औरंगाबाद के इस गुरुद्वारे  गुरुतेगबहादुर लंगर साहेब  में  24 घंटे लंगर चलने की वजह से साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है. रोजाना सुबह 3 बजे से पूरे गुरुद्वारा परिसर को धोया जाता है. यहां बर्तन भी चार चरण में धोए जाते हैं, पानी या चाय देने के लिए विशेष तरह के उपकरण हैं, जिनसे कम समय में अधिक लोगों को वितरण किया जाता है. यहां रसोई बनने वाली जगह हो, स्टोर रूम हो या बाथरूम आपको कहीं भी मख्खी देखने को नहीं मिलेगी. इससे इसकी सफाई का अंदाजा लगाया जा सकता है.  
सभी छायाचित्र ; शकील खान
औरंगाबाद का ये गुरुद्वारा गुरुतेगबहादुर लंगर साहेब 1974-75 के दौरान प्रारंभ हुआ था, जो एक हाल की शक्ल में था. शहर का यह गुरुद्वारा भले ही इतिहास के दृष्टिकोण से सबसे ज्यादा पुराना न हो, लेकिन इसमें होने वाला काम हर किसी को सबसे खास लगता है. इसके लंगर में 24 घंटे भोजन की व्यवस्था उपलब्ध रहती है. कमेटी के अनुसार आधे घंटे में 1000 लोगों के लिए खाने की व्यवस्था 24 घंटे के किसी भी पहर में यहां की जा सकती है. यहां रोजाना न्यूनतम 100 से 150 लोग सालभर भोजन करते हैं. ‘पहले पंगत फिर संगत’ की तर्ज पर यहां 1000 से भी ज्यादा लोग एक साथ बैठकर लंगर चख सकते हैं. सिख धर्म में गुरु नानक का एक उपदेश है ‘पहले पंगत फिर संगत’ , जिसका आशय है कि पहले आदमी को भोजन दो उसके बाद उसे भजन के लिए प्रेरित करो. यह संदेश ‘भूखे भजन न होंय गोपाला’ वाली कहावत को भी चरितार्थ करता है. यहां लंगर के लिए दो हाल हैं, जिनमें से एक बड़ा और दूसरा छोटा है.

  • गुरुनानक ने शुरू की थी लंगर की प्रथा 
  •  530 साल हो गए इस परम्परा  को
  • पिता ने दिए थे फायदे का सौदा करने को पैसा 
  • गरीबों को खिला दिया उस पैसे से  खाना
ब्लॉग रिपोर्टर @ औरंगाबाद
 दुनियाभर के गुरुद्वारे शुरू होने की कहानी काफी रोचक है, आपको ये जानकर हैरत होगी कि 530 साल पहले 20 रुपए से शुरू हुई ये लंगर की प्रथा आज तक जारी है.  दुनियाभर में लाखों लोगों को मुफ्त भरपेट भोजन कराने की यह प्रथा दरअसल गुरुनानक ने 15 साल की उम्र में प्रारंभ की थी. इसके लिए उन्होंने एक प्यार भरा चांटा भी खाया, लेकिन उनका पूरा जवाब सुनकर जो ‘लंगर’ मिला वो आज मानवता के काम आ रहा है.
फायदा ही नहीं सच्चा सौदा
कथानक अनुसार उनके पिता मेहता कालू ने उन्हें 20 रुपए में फायदा का सौदा करके बाजार से वापस आने को कहा था. उनके पिता ने एक ऐसा सौदा करने को कहा था, जिससे कुछ व्यवसाय जैसा खड़ा हो सके और मुनाफा कमाया जा सके. मगर कुछ समय बाद जब गुरुनानक खाली हाथ घर वापस आए तो उनके पिता ने सौदे के बारे में पूछा. इस पर उन्होंने जवाब दिया कि आज मैं ‘सच्चा सौदा’ करके आया हूं पिता जी फायदा के सौदे से भी बेहतर. मैंने रास्ते में मिले एक भिखारियों के समूह को पंगत में बिठाकर उन पैसों से भरपेट भोजन करा दिया. इससे ज्यादा फायदा और किसमें हो सकता है, ये फायदा ही नहीं सच्चा सौदा है. कथानक अनुसार आवेग में उनके पिता ने उन्हें एक चाटा रसीद भी कर दिया था, मगर बाद में उन्हें आशीष दी कि तेरा सौदा फलीभूत हो.
पंद्रह साल के थे नानक
सिख समुदाय के कथानकों अनुसार गुरुनानक का जन्म 15 अप्रैल 1469 में हुआ था. लगभग 15 वर्ष की उम्र में चूरकाना मंदिर, पाकिस्तान में यह घटना घटी थी. 1484-85 के दौरान विभाजन पूर्व जब यह घटना घटी, तब आज के पाकिस्तान का वह हिस्सा हिंदुस्तान में ही था. उस स्थान में  अब ‘सच्चा सौदा, चूरकाना मंदिर गुरुद्वारा ’ बना हुआ है. इस एक कथानक के बाद ही लंगर जैसी प्रथा को लगातार दशवंत से प्रारंभ किया गया और वो अनवरत जारी है.

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