मेरी आवारगी

यहां रखी है गुरुगोविंद सिंह की औरंगजेब के नाम लिखी चिट्ठी


गुरुद्वारा भाई साहेब भाई दयासिंहजी भाई साहेब भाई धर्मसिंहजी विभिन्न ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार 350 साल पुराना है. औरंगाबाद ही नहीं देश के इतिहास में भी अहम योगदान रखता है. 1707 ईस्वी में मुगल शासक औरंगजेब के नाम गुरु गोविंद सिंह की चिट्ठी ‘जफरनामा’ लेकर  उनके पंच प्यारों में से दो प्यारे भाई दया सिंह और भाई धर्म सिंह आए थे. सिख धर्म में लगभग गुरुद्वारों का प्राकाट्य संतों की चरण रज से ही है, ऐसे में शहागंज के धावणी मोहल्ला में स्थित इसी गुरुद्वारे की जमीन पर उस दौरान दोनों संतों ने बसेरा किया था. दरअसल पुरातन से यहां गुरुनानक के पुत्र द्वारा शुरू किया गया ‘उदासी’ सिख समुदाय निवास करता चला आ रहा है. उन्हीं लोगों ने उस दौरान गुरुगोविंद सिंह के दो प्यारों का यहां ठहरने का प्रबंध किया था. यह गुरुद्वारा नांदेड़ के हुजूर साहेब गुरुद्वारा से भी पुराना है, क्योंकि  गुरुगोविंद सिंह ने दक्षिण का दौरा उनके प्यारों के यहां आने के बाद किया था. गुरुद्वारा कमेटी के अनुसार निजाम के दौर में भी औरंगाबाद के इस धावणी मोहल्ले को ‘जमियते सिख्खा’(सिख्खों की जमीन) का टाइटल दिया गया था.

गुरुगोविंद सिंह के पंच प्यारों में से दो भाई  दयासिंहजी और भाई धर्मसिंहजी  जफरनामा लेकर औरंगजेब को सौंपने औरंगाबाद आये थे, लेकिन मुगल साशक उस वक्त अहमद नगर में था. ऐसे में दोनो संत यहां ठहरकर अहमदनगर के लिए निकले थे. उस दौरान जबरन धर्म परिवर्तन कर इस्लाम कुबूल करवाने को मुगल शासक औरंगजेब सबसे बड़ा जेहाद मानता था, लेकिन 40 पेजों के जफरनामे ने उसकी आंखें खोल दी थीं. उसमें गुरु गोविंद सिंह द्वारा फारसी में लिखे गए राजधर्म संबंधी उपदेश और निर्देश उसके हृदंय में चुभ गए थे. जफरनामे के तीन माह बाद ही एक अज्ञात बीमारी से औरंगजेब की मौत हो गई थी. और उसने उसके पहले जबरन धर्म परिवर्तन की अपनी मुहिम को भी बंद करा दिया था. इसीलिए हिंदुस्तान के इतिहास में गुरुगोविंद सिंह के जफरनामे को एक ऐतिहासिक परिवर्तन वाली घटना बताया जाता है, जिसके बाद जबरन धर्म परिवर्तन का दौर खत्म हुआ था. ऐसी घटना के गवाह और साक्ष्य रहे इस गुरुद्वारे का महत्व इसीलिए बढ़ जाता है. उन्हीं दोनों भाइयों के आने के कारण यहाँ गुरुद्वारा भाई साहेब भाई दयासिंहजी भाई साहेब भाई धर्मसिंहजी   का उदय हुआ.

यह औरंगाबाद के 500 साल पुराने ऐतिहासिक गुरुद्वारे की दीवार का दृश्य है, जिसमें उकेरे गए चित्र में गुरुगोविंद देव सिंह के पंच प्यारों में से दो भाई दया सिंह और भाई धर्म सिंह ने जफरनामा औरंगजेब को सौंपा था. दरअसल वो औरंगाबाद में अपनी सन 1707 की इस यात्रा के दौरान यहां धावनी मोहल्ले में विश्राम करके गए थे. उनकी जानकारी अनुसार औरंगजेब यहां औरंगाबाद में था, लेकिन यहां आने पर उन्हें पता चला कि वह अहमद नगर में है, तो उन्होंने जफरनामा वहां जाकर सौंपा था. संतों की चरण रज पड़ने के बाद भूमि तीर्थ हो जाती है, कुछ इसी वाक्य को चरितार्थ करते हुए सिखों ने उस एक कमरे को गुरुद्वारे में तब्दील कर दिया, जहां वो पंच प्यारे रुके थे. धीरे-धीरे यहां का विस्तार हुआ और गुरुद्वारा अपने भव्य स्वरूप में है.
ये जफरनामे की एक कॉपी का दृश्य है, जो दीवार के बाहर बड़े चित्र के रूप में उकेरी गई है. इसे गुरुगोविंद देव सिंह ने मुगलों की प्रशासनिक भाषा फारसी में लिखा था, जिसकी शुरुआत कुछ ऐसी थी. ‘‘ कमाले करामात कायम करीम, रजाबख्श रोजी रिहाकुम रहीम, अमा बख्श बख्शंद ओ दस्तगीर, रजाबख्श रोजी देहो दिलपजीर’’ इसका अर्थ है ईश्वर के कमाल से ही सब कुछ चल रहा है, उससे गुजारिश करें तो वो सब माफ करता है, उसी के हाथ में जगत के सारे खेल हैं, वही सबको रोजी देने वाला है. 40 पेज के इस ‘जफरनामा’ की एक और प्रति तब भोज पत्र में संरक्षित की गई थी, जो आज दशमग्रंथ में गुरुगोविंद सिंह के बतौर उपदेश संकलित है.

हस्तलिखित सैकड़ों साल पुराने ग्रंथ :  इस गुरुद्वारे के प्रमुख ग्रंथी ज्ञानी खड़क सिंह उस जफरनामे की दूसरी कापी को दिखाते हुए, जिसे सिखों के इस दशमग्रंथ में संकलित किया गया है, ताकि गुरुगोविंद सिंह की उस चिट्ठी (40 पेज का जफरनामा) से लोग सीख ले सकें. इसमें राजधर्म, राजा, शासन और इस्लाम सहित बाकी धर्मों से उपदेश हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद औरंगजेब को आत्मग्लानि महसूस हुई थी. यहां ऐसे औरकई और अन्य हस्तलिखित ग्रंथ मौजूद हैं, जो 500 साल से ज्यादा पुराने हैं. यहां पंजाबी में लिखी गीता, मीरा के दोहे, रामावतार और कृष्णावतार का वर्णन वाले सिख धार्मिक ग्रंथ भी हैं, जिनके माध्यम से मानवता और भाईचारे के उपदेशों को समान बताते हुए पाखंड से दूर रहने की नसीहत दी गई है.
दशवंत का अहम रोल ; सिख समुदाय में प्रत्येक सिख को अपनी कमाई का दशवंत मानवता के लिए खर्च करना जरूरी माना गया है, जिसको इस संप्रदाय के लोग अनिवार्य रूप से मानते हैं. यही वजह है कि बहुधा दान की राशि से चलने वाले गुरुद्वारों में लंगर जैसे सामाजिक कार्य अनवरत चलते रहते हैं. इन्हें आमतौर पर कभी भी किसी तरह के फंड की कमी नहीं होती है. जम्मू काशमीर की हालिया बाढ़ में रोजाना एक लाख लोगों को भोजन अमृतसर के स्वर्ण मंदिर गुरुद्वारे से दिया जाना भी एक ऐसा ही उदाहरण है. आमतौर पर स्वर्ण मंदिर में रोजाना एक लाख लोग लंगर में खाना खाते हैं.
ये शहर के 80 साल पुराने गुरुद्वारा गुरुसिंह सभा का नजारा है, जिसे केवल दशवंत के कमाल से आज पूरी तरह हाइटेक कर दिया गया है. यू पूरी तरह वातानुकूलित, लिफ्ट और सीसीटीवी कैमरों जैसी आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित है. इसे गुरुद्वारा कमेटी महाराष्ट्र में मुंबई के बाद दूसरे सबसे हाईटेक गुरुद्वारा होने का खिताब देती है. गुरुद्वारों में हर धर्म, विचार और धारा के लोगों के लिए रुकने-ठहरने से लेकर लंगर तक की व्यवस्था यही साबित करती है. ये गुरुद्वारे गुरु नानक के एक उपदेश ‘अव्वल अल्ला नूर उपाया, कुदरत के सब बंदे, एक नूर से जग उपज्या कौन भले को मंदे’ को चरितार्थ करते हैं. इसका आशय है कि भगवान, खुदा और जीजस सब उसी कुदरत के बनाए हुए हैं, सब उस एक ही नूर से उपजे हैं... न कोई बड़ा है न कोई छोटा.  
औरंगाबाद के सबसे पुराने गुरुद्वारे में जानकारी एकत्र करते हुए. गुरुनानक का एक उपदेश है ‘कीर्त करो, नाम जपो, वंड छको’ इसका आशय है कि कीर्त मतलब कर्म जरूर करो, जो भी तुम्हारा ईश्वर है उसका स्मरण करो और मिल-बांटकर खाओ. इस सदियों पुराने संदेश में सारी मानवता का सार छिपा है.  इस पोस्ट के सभी छाया चित्र ; शकील खान
मुस्लिमों के दुश्मन नहीं थे गुरुगोविंद सिंह :  इस 500 साल से पुराने गुरुद्वारे में इतिहास की कई कड़ियों से जुड़े दृश्य देखने को मिले. इस चित्र में सफेद पोशाक और नीली पगड़ी में दिख रहे ज्ञानी खड़क सिंह कुरान की आयतों से लेकर गीता के दोहों और गुरुवाणी तक सबका ज्ञान रखते हैं. उन्हें ‘तोरेत’ व ‘अंजार’ जैसी इस्लाम के सबसे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों का भी ज्ञान है. उन्हें इतिहास और राजनीति की भी खासी समझ है. देश-विदेश घूम चुके खड़क सिंह ने कुछ साक्ष्य और तथ्य दिखाए, जिन्हें सुरक्षा कारणों से यहां साझा करना संभव नहीं है. उनके अनुसार करबला के युद्ध में प्रयोग हुई तलवार शमशीर जिससे मोहम्मद साहेब और हसन-हुसैन ने जंग लड़ी थी. वो अनंतपुर साहेब पंजाब में आज भी रखी है. (इस शमशीर के बारे में कुरान की कुछ आयतें भी लिखी गई हैं) वहां जाने वालों को बाकायदा उसके दर्शन आज भी कराए जाते हैं. कहा जाता है कि औरंगजेब कि मौत के बाद बहादुर शाह जफर ने सशर्त दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने के लिए गुरुगोविंद सिंह से मदद मांगी थी, जिसका उल्लेख इतिहास में भी मिलता है. गुरुगोविंद सिंह की फौज की मदद ने जफर को गद्दी तक पहुंचा दिया था. उसने उन्हें अपनी ताजपोशी में आमंत्रित भी किया, जहां भेट स्वरूप अपने पिता के खजाने से 7 ताले खोलकर सबसे अनमोल तोहफे के रूप में वो शमशीर दी थी. इस मदद की शर्त ये थी कि जफर वजीर खान को गोविंद सिंह के हवाले कर दे जिसने उनके बेटों और पत्नी को दीवरों में जिंदा चुनवा दिया था. हांलांकि जफर अपने वादे से मुकर गया था.







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