मेरी आवारगी

हवा में नमी सी घुली हो तुम

सा भार ; गूगल बाबा
तुमने कहा था, मुझे कभी जाने नहीं दोगी...मैं अब भी तो वहीं खड़ा हूं जहां तुमने मुझे छोड़ा था....कहो तो आओगे न इंतजार लंबा हो गया है....तुम्हारी आंख की पुतलियों में इस कदर और कब तक सिमटा रहूंं..... आ सको तो आ जाओ न मैं इस कैद से मुक्ति चाहता हूं...जीवन तुम्हारी कनखियों से कहीं और बरस रहा होगा। एक मैं हूं जो यहां अभी तक तपते रेगिस्तान में अतीत के पन्नों से टपक रही यादों में भीगा हूं। मेरे हाथ से फिसलकर छूटती तुम्हारी अंगुलियां और उनका स्पर्श, मेरी हथेली ही नहीं पूरे वजूद को ठंडा कर गया था। देर तक बेजान बने रहने के बाद जब उस तंद्रा से वापस लौटा तो देखा वो काला सपना था जो सच हो गया....तुम जा चुकी थी। क्या तुम सचमुच चली गर्इं, मैं ठहरा हूं अपलक तुम्हें देखता हुआ। मैं तुमसे अलग नहीं, जैसे हवा से नमी घुली रहती है, जिंदगी में गम और खुशी मिली रहती है.....हम भी मिले रहेंगे। अफसोस कुछ नहीं बस कसक इतनी कि न कभी तुमने अलविदा कहा और न कहने का मौका दिया...काश कि बाहों में भरकर तुमसे विदा ले पाते।

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