जी करता है सारी उदासियाँ जिंदगी से निचोड़कर किसी कागज पर उकेर दूँ। वो तमाम बोझिल पल और असफलताएँ जिन्होंने कुछ हासिल नहीं होने दिया, उन्हें तोड़-मरोड़कर किसी नई इबारत की तरह फैला दूँ। किसी कविता-कहानी की लय में हर उदास लम्हा बदल दूँ। काश कि वो सलीका पुख्ता हो जाता जहाँ बिन ख़ुशी के उदासी में जी रमने लगता।
आवारगी में बसर का असर ही हो शायद कि वो उदास शक्ल अब भी मुझमें झलकती है। हर शाम किसी चिलमन से वो झाँका करती है और मैं अक्सर उसमें अपना अक्स ढूंढता रहता हूँ। कभी ये साफ दिखने वाला चेहरा अब ओझल सा हो चला सुलझने । तुम मुझमें दिखते हो या मैं तुममें अब तक नहीं समझ सका हूँ। कुछ उदासियों का कोई मुखड़ा नहीं होता। ये यूँ ही है जैसे तुम्हारी और हमारी बेअदब रवानी का कोई हिसाब नहीं। कहानी अब भी वहीं ठहरी सी है। कुछ अधूरेपन का कोई मुकम्मल जवाब नहीं।
अब जब भी जेहन में ये उदासी घर करती है तो एक अजब सा सुकून होता है। हजारों सवाल आकर खड़े हो जाते हैं कि खुशी की तलब हमें क्यों न रही। कभी-कभी यूँ भी लगता है कि उदासी किसी अलग दुनिया की कोई खिड़की है जहाँ से दुनिया देखना भी अजब है। तब हर तरफ मुझमें सारी दुनिया दिखती है। रोटी के लिए तरसती शक्लें, जंगल की तरह खाने-जीने की चुनौती में जूझती शक्लें, मरमर कर जीने वाली शक्लें, बेरोजगारी में दम तोड़ती शक्लें, भ्रष्टाचार से पिसती शक्लें, अपने हक़ के लिए रोती शक्लें, तमाम तरह के दर्दों में मढ़ी शक्लें.... उफ़ कितनी उदास शक्लें मुझमें घर कर गई हैं।
अब कितने किलो उम्मीद और न जाने कितने क्विंटल खुशियां लाना होगा तमाम उदासियों भरी इन शक्लों के लिए। अबूझ पहेली है इनकी उदासियों को निचोड़कर खुशी का कोई अल्फाज रचना। सोचता हूँ इक जरा सी आह और उदासी जब ने कितना सोख लिया है। क्या खोया और कितना पाया उस एक चिलमन को उठाने के लिए खुदा कभी तो साफ तस्वीर की सफक में जिंदगी चमके। उम्मींदो के कोई रंग नहीं होते और याद का कोई चेहरा नहीं। ये कभी भी चली आती हैं। एक वक्त ऐसा होता है जब बेमतलब रोने का मन होता है और तन्हाई इतना घर कर जाती है कि अकेलापन काटने को दौड़ता है, तब वो कंधा अक्सर पास नहीं होता। जिसमें सर रखकर बहा जा सके। और उस वक्त सारी समझ नासमझी में बदल जाती है तब ऐसी गलतियां हो जाती हैं। जिनका कोई ओर-छोर नहीं होता है।
तुम नहीं समझोगे ये उदास चेहरों की जुबान है इसमें बस कसक है, जो उस पल जीने नहीं देती। बस टीस उठती है कि तुम हो तो यहाँ क्यों नहीं हो। तुम नाराज मत होना। जिंदगी ढूंढते हुए जब आदमी खो जाता है तब ऐसा ही होता है। जितना पाने की चाह में कसक होती है उतनी कचोट खोकर हुई होती तो शायद कुछ खोता ही नहीं। कितना वक्त लम्हा-लम्हा करके फिसल गया हाथ से मगर उदासी के रेशे नहीं निकले। अब दुनिया भर की उदासी मुझमें झलकती है तब तुम्हारा हंसता चेहरा भी पास नहीं। कोई नया कलाम नहीं सिवाय सिसकियों के। कैसे उलझे हैं वक्त के धागे सुलझने का नाम ही नहीं लेते। सब तो होता है पास अक्सर सिवाय उस अहसास के जो कहे जिन्दा है मेरे अंदर कुछ धड़कता हुआ।
0 Comments