मेरी आवारगी

साक्षात्कार कथा : भाग एक

माना कि आपकी तनख्वाह 28 नहीं 18 हजार है?

चित्र साभार; गूगल बाबा 
मुझे नहीं पता ये सही है या गलत, मगर इसे तभी लिखा जाना चाहिए था जब ये घटा था। खैर देर आए दुरुस्त आए, सो अब लिख रहा हूँ। करीब एक साल पहले की बात है। देश के एक बड़े अखबार समूह के माध्यम से फिर मध्यप्रदेश लौटने का अवसर था। सम्बंधित अखबार के स्टेट एडीटर श्रेणी के अधिकारी से मुलाकात तय हुई। दरअसल उन्हें उज्जैन में होने वाले आगामी सिंहस्थ 2016 की कवरेज के लिए विशेष टीम की जरूरत थी। मैं पहले भी उस अख़बार समूह में काम कर चुका था और साक्षात्कार लेने वाले सज्जन मुझे पहले से जानते थे, क्योंकि उस अखबार के पूर्व कार्यकाल में मैंने उनके साथ काम किया था। ये और कि इस मुलाकात में उन्होंने याद दिलाने के बाद पहचानने की कृपा की थी। हालांकि उस दौरान मैं उनकी डेस्क से नहीं जुड़ा था, मगर एक ही कार्यालय में होने और बैठक व्यवस्था के तहत  कुर्सियां ठीक आमने-सामने की कतारों में होने से उनसे चमत्कार-नमस्कार हमेशा होता था। इतना ही नहीं वो हमारे डेस्क के कार्यों की तारीफ़ भी करते रहते थे, क्योंकि उस समय भी वो अखबार में बतौर एक डेस्क प्रमुख कार्यरत थे। खैर यह तो उनका संक्षिप्त परिचय है। आइये अब अपने विषय पर लौटते हैं।
मैं तयशुदा तिथि के हिसाब से उनसे मिलने पहुंचा, वो मुझे देखते ही बड़े अनिभिज्ञ भाव से बोले आइये बैठिये। उनकी अजनबियत को देखकर मैंने उन्हें जब पुराने कार्यकाल की याद दिलाई, तो मुझे पहचानकर बोले अरे दीपक यार तुम तो अपने आदमी हो, कहाँ महाराष्ट्र में पड़े हो ? आओ यहाँ। ये अच्छा मौका है अपने समूह में फिर से स्वागत है तुम्हारा। अभी क्या देख रहे हो वहाँ ? मैंने बताया सर वहाँ सेन्ट्रल डेस्क में हूँ। बिजनेस पेज के साथ-साथ स्थानीय वाणिज्य -व्यापार व उद्योग से जुडी गतिविधियों की खबरें भी मेरे जिम्मे हैं। इसके इतर भी समय-समय पर विशेष असाइनमेंट्स पर काम करता रहता हूँ। ये देख लीजिए मेरी कुछ खबरों की कतरनें हैं।
महोदय तपाक से बोले यार यहाँ तो महाकुम्भ और सिटी पेज पर डेस्क से जुड़ा काम करना है। तुम कैसे कर पाओगे ? कोई अनुभव ही नहीं है तुम्हारा सिटी डेस्क का ? मैंने कहा सर वहां भी सिटी डेस्क के लिए ही स्थानीय स्तर की खबरें करता हूँ। और कार्यालय में कई बार संख्या बल कम होने पर सिटी डेस्क पर भी काम किया है। आपने भोपाल में पहले भी मेरा काम देखा है। निश्चिंत रहें, शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।
(हूं...नजरें नीचे मेरी फ़ाइल पर गड़ाए हुए ) वो मेरी खबरों की कतरनों में कोई कस्तूरी सी खोजते हुए उन्हीं के ऊपर अपनी कलम से कोई जोड़-घटाना सा करते रहे। (उनकी इस बेतकल्लुफी की मुहर अब भी उन कतरनों पर मौजूद है) फिर बोले वो तो सब ठीक है ..सैलरी क्या है वहां तुम्हारी?
मैंने बोला, सर पेट्रोल- मोबाइल का भत्ता मिलाकर 27 हजार रुपये प्रति महीना है।
काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने एक साथ दो-तीन सवाल दागे। तीन साल पहले हमारा अखबार क्यों छोड़ा ? महाराष्ट्र क्यों गए ? उस समय अपने यहां सैलरी क्या थी तुम्हारी ?
मैंने बोला सर यहाँ तो तब 12 हजार रुपये सैलरी थी और दादा जी के एक्सीडेंट के कारण मैं 20 दिन से छुट्टी पर था। ऐसे हालात में मुझे या तो तुरंत कार्यालय ज्वाइन कर लेने या इस्तीफा देने को कहा गया था।इसलिए छोड़ना पड़ा था। इसके अलावा भी कई कारण हैं। जैसे मुझे आपके अखबार में जिस कमिटमेंट के साथ ज्वाइन कराया गया था वो 3 साल की नौकरी छोड़ने के दो रोज पहले तक भी पूरे नहीं हुए थे। न ही वो काम दिया गया जो देने का वादा था और न ही तनख्वाह। इतना ही नहीं जिस तनख्वाह पर मैं आपका संस्थान ज्वाइन करने को राजी हुआ था वो वहां तीन बार मिले सालाना इंक्रीमेंट के बाद भी नहीं मिल पाई थी।
संस्थान की इतनी बुराई सुनने के बाद वो बोले तुम्हें तो बड़ी शिकायतें हैं फिर क्यों वापस संस्थान से जुड़ना चाहते हो ? और ऐसा हो ही नहीं सकता संस्था में कि छुट्टी जाने पर इस्तीफा मांग लिया जाए। इस सहित ऐसे कई और सवालों के जवाबों से मैंने उन्हें काफी हद तक सन्तुष्ट किया। बावजूद इसके वो (अनमने भाव से सैलरी स्लिप को घूरते हुए ) जो बोले उसे सुनकर मैं सुन्न पड़ गया। उन्होंने कहा दीपक तुम्हारी नई सैलरी तो हम मानेंगे ही नहीं, क्योंकि अपने संस्थान में जो आदमी एक बार काम कर लेता है उसकी सैलरी की ग्रोथ को हम ही आंकते हैं, तो हमारा गणित ये कहता है कि तुम्हारी तबकी 12 हजार रुपये मासिक सैलरी और उसमें अब तक के तीन साल में से प्रत्येक साल का 2-2 हजार रुपये के हिसाब से 6 हजार रुपये इंक्रीमेंट माना जाएगा। तुम्हें अभी कितना मिल रहा है और क्या मिल रहा है उससे हमें मतलब नहीं है। कुलमिलाकर हमारे गणित में तुम्हारी ग्रोथ का आकलन है 20 हजार रुपए प्रतिमाह, तो इसी तनख्वाह पर तुम्हें यहां रखा जा सकता है। इससे ज्यादा तो हम नहीं दे पाएंगे। मैं माफ़ी चाहता हूँ यार और वैसे भी तुम सेन्ट्रल डेस्क के आदमी हो सिटी का कोई अनुभव नहीं है फिर भी हम रख रहे हैं, क्योंकि तुम संस्था के पुराने कर्मचारी रहे हो।
मेरा दिमाग कह रहा था कि या तो इन महोदय को उनकी इस बकलोली के लिये गोली मार दूँ, या फिर जमीन फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं। इस बेहद घिनौने से मजाक के बाद भी मैंने हंसते हुये उन्हें जवाब दिया कि सर यहां कोई गणित का पर्चा तो मैं-आप बैठकर हल कर नहीं रहे हैं जो आप मेरी 28 हजार मासिक तनख्वाह को 20 मान ले रहे हैं। और न ही हम कोई ऐसा सवाल सुलझा रहे हैं जिसमें "माना कि" वाली पध्दति से जवाब ढूँढना हो। और आप ये तब कह रहे हैं जब मेरे पास 28 हजार मासिक तनख्वाह मिलने के प्रमाण आपके सामने मेज पर रखे हैं। मैंने नमस्कार सर बोला और यह कहते हुए वहां से निकल लिया कि सर न तो मैं इस पद के लिए खुद को अयोग्य समझता हूँ न ही मैं किसी छोटे मीडिया समूह में हूँ कि आपके ब्रांड वैल्यू के लिए अपनी कीमत घटाकर चला आऊँ। माफ़ी चाहता हूँ सर पर मैं इतनी कम तनख्वाह में दिहाड़ी के लिए उपलब्ध नहीं हूँ। चलता हूँ।
नोट: ऐसे कई किस्से मीडिया में यहां रोज होते होंगे। ये कोई पत्रकारों की कम सैलरी को लेकर रोना नहीं है, बल्कि एक आप बीती से ये जताने का प्रयास है कि ऊपर बैठे लोग अक्सर ये भूल जाते हैं कभी वो भी नीचे थे। ये और है कि आजकल ऊपर पहुंचने के लिए कई तरह की सीढ़ियां मौजूद हैं।
नोट : मजीठिया का लागू होना तो छोड़िए कुछ अखबार मालिकों और सम्पादकों की चले तो दिहाड़ी में  भी पत्रकारों से काम ले लें। यहाँ हर हाल में सम्पादकों, मालिकान और आला अधिकारियों की जेबें ठंडी नहीं होनी चाहिए। बाद बाकी जो है सो तो हइये है।

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