मेरी आवारगी

फ़ारूख़ शेख़ जैसा लड़का हो, दीप्ति नवल-सी लड़की।

सुशोभित सक्तावत जी का ब्लॉग  
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लड़का रुपये में बारह आने शरीफ़ हो, लड़की आटे में नमक जित्‍ती नकचढ़ी। लड़का नाप-तौल कर बोले, लड़की ज़ुबान से कान काटे। लड़का दानिशमंद, लड़की हाजिरजवाब। लड़का सादी कमीज़ और घेर वाली पतलून पहने, लड़की छींटवाली सूती साड़ी। लड़का कनटोपे सरीखे बाल रक्‍खे, लड़की सिर नहाए तो नहीं बांधे चोटी।
छुट्टी के दिन दोनों बाग़ में मिलें। घुटने जोड़कर बैठें। धीमे से, मुंह ही मुंह बतियाएं। लड़का हाथ बढ़ा लड़की के कंधे पे रखे, लड़की के कान की लवें ललाएं। धूप में खिड़की सरीखी लड़की की पारदर्शी मुस्‍कराहट कान के सफ़ेद मोती में झिलझिलाए।
हरी घास का बित्‍ता दूर जहां दमके, लड़की की आंखें वहीं जमी हों। लड़का अपलक देखता रहे लड़की का एकटक निहारना। यूं निरापद दूर देखने का उद्यम जो क़ुरबत की तस्‍वीर हो। लड़के की पुस्‍तक, लड़की का पर्स धरा रह जाए बेंच पर। लड़की का हाथ हौले-से लड़के की दाहिनी बांह छुए। लड़के की अंगुलियां चश्‍मे की कमानी से खेले, जो अभी इंद्रधनुष बन गया है उसके हाथों में। और, उसकी हथेलियों पर पसीने का एक पेड़।
तसल्‍ली हो, फ़ुरसत हो। शऊर हो, नफ़ासत हो। कहीं जाने की जल्‍दी न हो, कुछ पाने की वहशत न हो। खो देने का गुमान तो दूर तक नहीं। दरमियां कोई ख़लल न हो। दूध-मिश्री-सा दोनों का मन हो। शरबती शाम हो। रात की सांवली किनार हो दुपट्टे की दुपहर से खुलती हुई।
बस : फ़ारूख़ शेख़ जैसा लड़का हो, दीप्ति नवल-सी लड़की।
#तभी_हम_कहेंगे_चश्मेबद्दूर
नोटः यह चिट्ठा  मय चित्र  दीप्ति  नवल  के प्रशंसक सुशोभित सक्तावत की फेसबुक वॉल से साभार बिना सम्पादन के यहाँ चस्पा किया गया है। 

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