मेरी आवारगी

‘भूकंप! तुम कब आओगे?’

‘एलएन स्टार’ में प्रकाशित रत्नाकर त्रिपाठी जी का एक व्यंग्य सादर प्रस्तुत है :-
        

             
देश के सियासी जगत में बीते दिनों हुई एक मुलाकात सुर्खियों में रही। एक पुरानी राजनीतिक पार्टी ने अपने युवराज के नेतृत्व में दूसरी बड़ी और फिलहाल निर्णय लेने में सक्षम पार्टी के एक बड़े चेहरे से मुलाकात की। मामला खालिस सियासी था, लेकिन एक व्यंग्यकार के रूप में (जिसे इस व्यंग्य के लिहाज से आप महाभारतकालीन संजय भी कह सकते हैं) मैंने पता लगा ही लिया कि सियासत के अलावा उस समय और क्या-क्या हुआ था। क्या-क्या बातें हुर्इं। गिले-शिकवे पेश किए गए। रूठने-मनाने के मौके आए। हास-परिहास के प्रहसन भी दिखे और फिर कुछ ऐसा हुआ कि असरकारी पार्टी के बड़े चेहरे ने मायनाखेज अंदाज में युवराज से कहा- ऐसी बातचीत होती रहनी चाहिए। गोया, वह यह कह रहे थे, ‘यार! मिलते-जुलते रहा करो।’ अंदाज बशीर बद्र साहब के ‘...दिल मिलें न मिलें, हाथ मिलाते रहिए’ वाला था। आगे की बातें लिखने से पहले बद्र साहब से इसलिए माफी मांग रहा हूं कि उनका यह मशहूर शअ‍ेर कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में इस्तेमाल किया जा रहा है।
युवराज परेशान थे। उनके पेट में तकलीफ थी। मामला खाने या हाजमे का नहीं था। शब्दों का था। युवराज ने मेहनत कर-करके कई शब्द और उनका वाक्यों में मारक प्रयोग करने का हुनर सीखा था। दरबारियों ने छांट-छांटकर शब्द तलाशे। प्राचीनकालीन शब्दकोषों से लेकर मध्यकालीन राजनीतिक जुमले ढूंढ निकाले। आधुनिककाल की शरण में आकर आपत्तिजनक शब्दों को मॉडिफाई करने की शैली से श्रृंगारित वाक्य छांटे। फिर ऐसी सामग्री बनी, जिसके सेवन से सामने वाला मायावी ताकत का स्वामी बन गया। ऐसी ताकत, जिससे वह मुंह खोलते ही भूकंप लाने की क्षमता से लैस हो गया। लेकिन समस्या यह थी कि मुंह खुल ही नहीं पा रहा था। युवराज मुंह खोलने का उपक्रम मात्र करते तो भूकंप से डरे लोग सामने से भाग जाते। युवराज और दरबारियों का सारा आनंद जाता रहा। भला वह भूकंप ही क्या, जिससे तबाही का मंजर नहीं दिखे। उससे तबाह हुए दु:खी लोग न दिखें। लिहाजा, जब युवराज को अहसास हो गया कि उनके भूकंप लाने से पहले ही लोग सुरक्षित ठिकाने पर पहुंच जा रहे हैं तो उनकी बेचैनी बढ़ गई। भीतर ही भीतर घुटते भूकंपकारी वाक्य अपनी सहनशक्ति खोने लगे। तब युवराज ने दरबारियों से पीड़ा बयान की।
दूरदर्शन पर एक विज्ञापन आता है। विवाह की रस्म से ठीक पहले दूल्हे का पेट दुखने लगता है। मामला नाजुक है। दुल्हा धर्मसंकट में है कि विवाह की वेदी या कमोड में से किसका चयन करे। दिल वेदी की ओर खींच रहा है। पेट कमोड की ओर। वहां दुल्हन से मिलने की पूरी तैयारी है। यहां तकलीफ से निजात मिलने की पूरी संभावना। भाई लोग बीच का रास्ता निकालते हैं। दुल्हा एक दवा खाता है। केवल छह सेकंड में ठीक होकर कमोड की शरण में जाए बगैर वेदी तक पहुंच जाता है। यहां भी मामला ऐसा ही था। युवराज ने पेट की तकलीफ ऐसे समय बताई, जब उनके राजा बनने की तैयारियां चल रही थी। वहां बुजुर्ग राजमाता अपने लाड़ले का राज्याभिषेक के लिए इंतजार कर रही थीं। यहां युवराज की तकलीफ किसी कमोडरूपी सुरक्षित ठिकाने की गुहार लगा रही थी। दरबारियों ने दिमाग लगाया। कहा, ‘राज्याभिषेक के लिए जाने से पहले कमोड जाना अशुभ संकेत होगा। आप तो भूकंप ही ले आइए। लोग भागते रहेंगे, आप तो सीधा उसे भूकंप का निशाना बनाइए, जो आपकी राजनीतिक जमीन को रह-रहकर हिला देता है। आपकी वह जमीन जिस पर आलू की खेती नहीं होती, बल्कि उसे बनाने का कारखाना लगाया जाता है।’
युवराज को सलाह जंच गई। यूं भी वे सरल स्वभाव के हैं। इसलिए इससे पहले तक भी वे अपने दरबारियों की हर सलाह को सहज अंदाज में ही स्वीकारते हुए काम चला रहे थे। मुलाकात का समय तय किया गया। फिर इसकी तैयारी हुई। समस्या यह थी कि युवराज के मुंह खोलते ही भूकंप आने की आशंका थी। लिहाजा तय किया गया कि युवराज भूकंप वाले वाक्य केवल उस समय बोलेंगे, जब दरबारी संकेत दे देंगे कि समय आ चुका है। बाकी समय तक वह और दरबारी सामने वाले को प्राकृतिक आपदाओं की फिल्म के ट्रेलर दिखाते रहेेंगे। दरबारियों का चयन किया गया, उनकी योग्यता तथा स्वभाव के अनुसार। मसलन, एक इसलिए चयनित हुए कि वह पूरे आनंद के साथ शरमाने की कला में प्रवीण थे। दूसरे, किसी भी समय नाराज बब्बर शेर की तरह दहाड़ सकते थे। तीसरे युवराज के स्टेंडबाय थे। युवराज तो इस टीम के पूर्णकालिक कैप्टन थे, लेकिन एक स्टेंडबाय कैप्टन की कमी तीसरे से पूरी की गई। चौथे का तो गजब कंट्रास्ट था। वह युवराज के गुलाम होते हुए भी किसी आजाद शख्स की तरह आचरण करने में माहिर थे। सारथी के अंदाज में अर्जुन से मिलते-जुलते नाम वाले एक बुजुर्ग और एक  युवा राजा को भी इसमें शामिल किया गया।
इसके बाद टीम धमकी असरदार चेहरे के पास। बातचीत शुरू हुई। चेहरा बोला- ‘क्या लेंगे चाय या ठंडा? यहां हर चीज की मशीन लगी है। आदेश कीजिए।’
युवराज- ‘एटीएम लगा है या नहीं? आपके चक्कर में एटीएम की लाइन में लगकर परेशान हो चुका हूं। खैर! वहां आपके लोगों ने चाय पिला दी थी। अब रहने दीजिए।’
चेहरा-‘माताजी कैसी हैं? सुना है कि मां हुजूर के दुश्मनों की तबीयत कुछ नासाज चल रही है।’
युवराज का चेहरा चमक उठा। खुशी से बोले, ‘भूकंप आने से पहले ही दुश्मन बीमार हो गए। वाह...!’ एक  दरबारी को उर्दू के डायलॉग्स में महारत थी। दरबार में आने से पहले भी वह नौटंकी में प्रवीण था। उसने युवराज का हाथ धीरे से दबाया। फिर चेहरे से बोला, ‘वो खैरियत से हैं। आप काम की बात करिए।’ इस तल्खी को बैलेंस करने के लिए राजा का स्वर उभरा, ‘शी इज परफेक्टली आॅल राइट।’ इस बीच गुलाम ने युवराज के कान में धीरे से बता दिया कि क्या सवाल पूछा गया था और किसकी सेहत के बारे में यह चिंता थी।
अच्छा-खासा जमता प्रसंग फिर औपचारिकता पर लौट आया था। चेहरा बोला, ‘इस साल अच्छी ठंड पड़ेगी।’ जवाब में अर्जुन ने बातचीत की चाबुक हाथ में ली और इसरार भरे अंदाज में तपाक से कहा, ‘आपने तो जनता की जेब ही ठंडी कर दी है।’ सब ने ठहाका लगाया। यह देख युवराज भी हंस पड़े। उन्हें देख दरबारी सप्रयास जोर-जोर से हंसने लगे। इधर, कैप्टन को मौसम की चर्चा में न तो दिलचस्पी थी और न ही उसकी इस बारे में खास मालूमात थी। वह तो पानी के लिए परेशान था। लेकिन जब युवराज ही पानी नहीं पी रहे तो भला उसकी क्या औकात कि इसकी बात करता। वह मन मसोस कर रह गया। और कोई मौका होता तो वह मक्के दी रोटी ते सरसों दा साग का आनंद ले रहा होता, लेकिन यहां खाना तो दूरÑ पानी तक की जुगाड़ नहीं हो पा रही थी। उसकी पूर्व प्रजा प्यासी थी और वह इस बात को लेकर बेचैन था कि उसके फिर से शासक बनने से पहले ही प्रजा की प्यास न बुझ जाए। वरना उसे फिर कम से कम पांच साल तक प्यास भड़काए रहने के बंदोबस्त करने पड़ेंगे।
इस बीच चेहरा अपने मोबाइल फोन पर ‘शी इज परफेक्टली आॅल राइट’ का हिंदी अनुवाद पढ़ चुका था। उसने कहा, ‘कुछ खाने का मंगवा लेते हैं। पेमेंट की फिक्र मत कीजिएगा, मेरे पास पेटीएम है।’
युवराज गुस्से से भर उठे। तभी आनंद ने शरमाते हुए इशारा किया कि अभी भूकंप का समय नहीं आया है। बोले, ‘एटीएम वाली चाय के बाद युवराज ने बाहर का खाना बंद कर दिया है।’ वैसे तो वह ‘खाना-पीना बंद कर दिया है’ कहना चाहते थे, लेकिन ‘पीने’ में छिपे भाव और फिर बातचीत के थाईलैंड तक विस्तार की आशंका के चलते उन्होंने केवल खाने की बात कहकर काम चला लिया।
मामला जम ही नहीं रहा था। बीते कई दिनों से लगातार सिर्फ और सिर्फ चिल्लाने की तालीम ले रहे दरबारी इस औपचारिक और सद्भावनापूर्ण बातचीत में असहज महसूस कर रहे थे। वह चाह रहे थे कि युवराज भूकंप ला दें, लेकिन ऐसा होने ही नहीं आ रहा था। तब उनमें से एक ने मन ही मन कहा, ‘इससे अच्छा तो राजमाता को ले आते। कम से कम "भोकाम्प" तो आ ही जाता।
तब तक चेहरा बोला, ‘मेरे लायक आदेश हो तो बताएं।’
युवराज तुरंत शुरू हो गए। नोट की कमी से लेकर काला धन, किसानों की दिक्कत, देश की समस्याएं और भी न जाने किस-किस विषय पर लगातार बोलते ही चले गए। सारा कमरा सिर्फ उनकी आवाज से गूंज रहा था। धाराप्रवाह बोलने के बाद युवराज रुके तो कमरे में सन्नाटा भी आकर बैठ गया। उनकी बात खत्म हुई तो चेहरा मासूम अंदाज में बोला, ‘तो! आप मुझसे क्या चाहते हैं?’
युवराज के तेवर देखकर सारे दरबारी भूकंप की आशंका से सिहर उठे थे, लेकिन चेहरा के चेहरे पर कोई शिकन ही नहीं थी। खीझकर युवराज ने कहा, ‘बैंक अकाउंट के पंद्रह लाख का क्या हुआ? क्या हुआ विदेश से सारा पैसा लाने का? साले के मोह में लिपटे जीजा का क्या होगा? बताइए! है आपके पास कोई जवाब...?’
अब चेहरा के चेहरे पर कुछ नए भाव तैरे। कुछ हंसकर बोला, ‘काहे के पंद्रह लाख? किस बात का विदेशी पैसा और कौन सा जीजा? अरे! देश की बात कीजिए। उसे पंद्रह लाख नहीं चाहिएं। उसे विदेश से पैसा नहीं चाहिए। वह तो इस बात को ही गनीमत मान लेता है कि एटीएम से एक दिन में उसे ढाई हजार रुपए मिल जा रहे हैं। उसे जीजा-साले से कोई लेना-देना नहीं। वह तो इसी जुगाड़ में लगा है कि किसी तरह खुद किसी का जीजा या भाभी बनने की जुगत जमा ले और इस बहाने ढाई लाख रुपए बैंक से निकाल सके। आप भी कहां लगे हैं? छोड़िए मांडवाली कर लेते हैं। मैं आपके साठ साल का हिसाब नहीं मांगूंगा और आप मेरे पचास दिन का जवाब नहीं लेंगे। आप अगस्टॉ हेलीकॉप्टर की सैर का आनंद लीजिए, मुझे विदेश में सैर-सपाटा करने दीजिए। अब घर जाइए। मुझे भाषण तैयार करने हैं। आपको मुकुट धारण करना है। मुझे भाषण देने दीजिए, आप राजा बनिए। जनता की फिक्र मत कीजिए हुजूर। वह तो आने वाले तीन साल में सब कुछ भूल चुकी होगी। क्योंकि उस समय तक हम और आप मिलकर ऐसे कई इश्यू बना चुके होंगे, जो बैंक की कतार से ज्यादा भयावह असर रखेंगे। यकीन मानिए, ऐसा ही होता आया है और होगा भी। अच्छा नमस्ते।’
युवराज विजयी भाव से उठे। इससे भी ज्यादा विजयी भाव में चेहरे ने पूरी आत्मीयता से कहा, ‘ये आना आना नहीं मान जाएगा। न चाय और न पानी। आपने तो मेहमाननवाजी का मौका ही नहीं दिया। कभी फुरसत से आइए। ऐसे ही गप-शप करेंगे और ढोकला खाएंगे।’ युवराज के चेहरे पर अजीब से भाव आए। यह ताड़कर चेहरा बात संभालते हुए बोला, ‘आप चाहेंगे तो पिज्जा भी मंगवा लेंगे। स्वदेशी होने के बावजूद इतना तो किया ही जा सकता है। आखिर आप हमारे मेहमान हैं।’ फिर उसने अजीब स्वर में कहा, ‘राजा बनकर भूल मत जाइएगा। फिर आना यार, अच्छा समय कट गया।’
चेहरा के कक्ष से बाहर निकलते-निकलते एक दरबारी बोला, ‘सामने मीडिया है। भूकंप भी नहीं आया। क्या जवाब देंगे?’ युवराज ने कहा, ‘उनसे कहो, हमारे पेट की तकलीफ ठीक हो गई है। अब हम उनकी जनता की तकलीफ की पूरी जानकारी लेने के बाद ही अगला कदम उठाएंगे। फिलहाल तो गाड़ी निकालो। हमें लखनऊ जाना है।’ ‘...लेकिन वो भूकंप...!’ दरबारी ने फिर कुरेदा। जवाब में युवराज का स्वर आया, ‘कह दो भूकंप आया था, लेकिन वह हमारी तरह का भूकंप था। यदि उसका कोई असर है तो वह तीन साल बाद दिखेगा। तब तक इंतजार करें। क्योंकि हम युवराज हैं, राजा बनने वाले हैं और हर काम की हमारी अपनी शैली है।’

नोट : यह चिट्ठा रत्नाकर त्रिपाठी जी की फेसबुक वॉल से साभार यहाँ चस्पा किया जा रहा है।

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