हरीश मलिक |
प्रेम छंद-भाग-2
द्वारा : हरीश मलिक
अखबार सुर्ख है
या शर्म से लाल है
फिर आई है वही खबर
जो कल भी आई थी
और उससे पहले भी.
समेटकर दामन में
सालों से संचित
संस्कारों की राख,
कुचलकर अपनों के सपने
और उनका साथ,
फिर
एक और लाडो भाग गई
उसी नायक के साथ
जिसके साथ
हर रोज सपनों में
भाग जाया करती हैं
न जाने कितनी लड़कियां।
बसंत के बगीचे में,
अमुआ के पेड़ों तले,
फागुन की चांदनी रात में
प्रेम के पंछी खूब मिले।
कभी नैनों से,
कभी अधरों से,
दिनभर बातें, दिलभर बातें।
कभी दिल चहके,
कभी तन महके,
और बहकी-बहकी हों रातें।
ऐसे में,
प्रणय निवेदन बीच,
कोई नई-नवेली नायिका
सुर्ख जोड़े से पहले
नायक की अति-आसक्ति में
उतार दे सुर्ख-शर्म के गहने
तो गालिब क्या कहेंगे?
और गुलजार क्या लिखेंगे?
सेमल की रुई सा प्रेम
यहां-वहां उड़ता है।
पालतू चक्रवातों के दबाव में
कहीं जा पड़ता है।
नायक भेस
बदलकर अब,
असली रूप में आया।
ज्यों कोई भंवरा रस पीकर
दूजे फूलों पर मंडराया।
वक्त की हवा में,
आंसुओं की शैय्या पर
वही नायिका अब है,
अकेली और अभागी
सो जाए/थकी हारी
नायक का इंतजार करते-करते
क्या कहेंगे
बड़ा दुर्भाज्यपूर्ण समय है
प्रेम के इर्द-गिर्द
शनि का वलय है।
सठिया गए हैं वे, नहीं जानते
देश में लोकतंत्र है
यह प्रेम का कौमदीय अंत है
अब गालिब क्या कहेंगे?
और गुलजार क्या लिखेंगे?
नोट : यह चिट्ठा हरीश मलिक जी की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है। इसका पहला भाग भी जल्द प्रस्तुत किया जाएगा।
(कविता का पहला भाग FB पर 27-09-13 को पोस्ट किया था)
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