हरीश मलिक |
प्रेम छंद-1
द्वारा : हरीश मलिक
अखबार सुर्ख है
या शर्म से लाल है!
फिर आई है वही खबर
जो कल भी आई थी,
और उससे पहले भी।
समेटकर दामन में
सालों से संचित
संस्कारों की राख।
कुचलकर अपनों के सपने
और उनका साथ,
फिर भाग गई
एक और लाडो,
उसी नायक के साथ।
जिसके साथ
हर रोज सपनों में
भाग जाया करती हैं
न जाने कितनी लड़कियां।
टेसू के फूलों-सा प्रेम,
इसका रंग
जल्द/बहुत जल्द,
चढ़ता भी है
और उतरता भी है।
जननी के आंसू,
पिता के प्यार,
और भाई के भावुक गुस्से
से पिघलकर/डरकर
नायिका लौट आई है,
अपनी मांद में
सपनों के राजक़ुमार को छोडक़र।
तो गालिब क्या कहेंगे ?
और गुलजार क्या लिखेंगे?
नायिका के सपने में खोए
और अब भी इंतजार करते
नायक को
पुलिस ने पकड़ा है।
समाज/रिवाज/परम्पराओं
की जर्जर बेडिय़ों ने
साहिबां को जकड़ा है।
हिमालय-सी कस्में,
क्षण-भंगुर वादे,
बिछी है प्रेम की बिसात।
खलनायक-नुमा प्यादे,
भारी हैं शाश्वत प्रेम पर
और दे दी है मात।
नायिका ने जज के समक्ष
बयान बदल दिया है।
नायक हमारा
अब जेल में बंद है।
बौरा गए हैं वे,
नहीं जानते
यह प्रेम का करुणामयी छंद है।
गालिब अब क्या कहेंगे?
और गुलजार क्या लिखेंगे?
नोटः यह चिट्ठा हरीश मलिक जी की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है। यह उनकी एक सुंदर रचना है। इसका दूसरा भाग भी अवश्य पढ़ें।
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