मेरी आवारगी

दंगल किसी तरल की तरह हमारी धमनियों में दौड़ती है : महेंद्र

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राष्ट्रगान के सम्मान में मैं दो बार खड़ा हुआ। एक बार सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आैर दूसरी बार खुद के आदेश पर। दूसरी बार में फिल्म का सम्मान भी शामिल था। पूरी फिल्म के दौरान महावीर फोगट के बारे में सोचता रहा। आमिर खान इतने आक्रामक और जुनूनी लग रहे थे कि मुझे भी डर लग रहा था। वैसे रियल फोगट इतने सज्जन मालूम पड़ते हैं कि वे आमिर को ‘आमिर भाईसाहब’ कहकर संबोधित करते हैं। 

 

कहानी जितने प्रभावी और बारीकी के साथ बुनी गई, उससे यही सवाल पैदा हुआ कि इसमें कितनी वास्तविकता है? गीता फोगट का एक इंटरव्यू देखा। बकौल गीता, ‘फिल्म देखकर ऐसा लगा कि हमारी जिंदगी के आगे कैमरा रखकर किसी ने वीडियो बनाया है।’ ये फिल्म के निर्देशक को मिला सबसे बड़ा कॉम्पलीमेंट हो सकता है। ये कहानी महावीर फोगट से अधिक गीता फोगट की है। वो जो बनने को राजी हुई, वो शायद असलियत में नहीं थीं, लड़ी, आगे बढ़ी, भटकी, संभली, फिर जीती। उन सब करोड़ों बेटियों की लड़ाई, जो खुद के औरत होने के कारण बिना लड़े ही हार मान लेती हैं। 


फिल्म का पहला भाग बेहद मनोरंजक, भावनात्मक और थोड़ा ह्रदय विदारक भी है। बेटियों पर आमिर की सख्ती देखकर लगता है कि वे अपने सपनों को उन पर थोप रहे हैं। उनसे जबरन उनका बचपन छीन रहे हैं, उन पर सितम ढा रहे हैं। इस संदर्भ में आमिर की ही फिल्म 3इडियट्स याद आती है, जो सवाल पैदा करती है कि क्या महावीर फोकट की बेटियां रेसलर ही बनना चाहती थीं? खैर, इस मुद्दे को यहीं पर छोड़ना मुनासिब होगा। 

आगे बढ़ते हैं। बाप-बेटी के रिश्ते का जिक्र किए बिना इस फिल्म की बात पूरी नहीं होती। जब गीता लगातार हारने के बाद अपने पिता को फोन करती है और फूट-फूटकर रोती हैं, तब आंखें नम हो जाती हैं। सिर्फ मां-बाप ही हैं, जिनके सामने बड़े से बड़े गुनाह के बोझ को आंसुओं में बहाकर बइज्जत बरी हुआ जा सकता है। फिल्म का एक अपना प्रवाह है, जो दर्शक की धमनियों में होकर बहता है, महसूस होता और कभी-कभी अश्क बनकर आंखों के रास्ते बाहर निकलता है। 

थिएटर से बाहर आने के बाद भी आप इसके सम्मोहन में डूबे रहते हैं। दंगल की सीमाएं सिर्फ कुश्ती या खेल आधारित फिल्म तक नहीं हैं, ये पिता की, बेटी की, बहन की, मांं की सबकी कहानी है। संगीत, साउंड स्कोर, संवाद सब कुछ धमाकेदार है। आमिर खान के अंदर के अदाकार का एक और नया रूप सामने आया है। नितेश तिवारी काे बेहद सधे हुए निर्देशन के लिए साधूवाद। साक्षी तंवर, फातिमा सना शेख, सान्या मल्होत्रा, जायरा वसीम और सुहानी भटनागर सभी कैमरे को सच के बेहद करीब ले आई हैं।

नोटः यह चिट्ठा उभरते फिल्म समीक्षक महेंद्र गुप्ता जी फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।

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