मेरी आवारगी

हिमांशु बाचपेयी जो खालिस 'लखनऊवा' हैं

 लखनऊवा
नाकूस-ए-बरहमन से सदा-ए-अज़ां सुनी   

ये क्या तुम लखनऊ लखनऊ करते फिरते हो ? वही माज़ी के हसीन औराक़ (अतीत के ख़ूबसूरत पन्ने) की बातें. क्या होता है इन्हे दोहराने से  ? आज के लखनऊ से इनका कोई वास्ता हो तो कहो. पता नहीं कौन से युग में जी रहे हो ?
जवाब सुनने की ताब है ? तो सुनिए...पहली बात तो जो ये ‘लखनऊ लखनऊ’ है ये किसी मज़ज़ूब (पागल) की बड़ नहीं है, मेरे दिल की धड़कन है.  दूसरी बात ये कि अगर आपको ये सिर्फ माज़ी के हसीन औराक़ की बातें लगती हैं तो फिर माफ़ कीजिएगा आप आज के लखनऊ को बिल्कुल नहीं जानते. जिसे आप रस्मे कुहन (पुरानी) कहते हैं लखनऊ में वो आज भी एक जिन्दा तहज़ीब है. जिसके अनगिनत परस्तार (पूजने वाले) यहां मौजूद हैं. आपको भी मिल जाएंगे. बस इक ज़रा ज़हमत करके उन हिस्सो में जाना पड़ेगा, अख़बार या टीवी में जिनका ज़िक्र नहीं आता, और भूले-भटके अगर आ भी गया तो आप फ़ौरन पन्ना या चैनल पलट देते हैं. मेरे क़िस्सों के क़िरदार इन्ही हिस्सों के बाशिंदे हैं.. और तीसरी और सबसे अहम बात. ये जो माज़ी के हसीन औराक़ की बातें हैं न, अहले नज़र के लिए हाल की वज़ाहत (व्याख्या) भी हैं और मुस्तकबिल की पेशीनगोई (भविष्यवाणी) भी. आई बात समझ में ? नहीं ! आइए मैं आपको एक क़िस्सा सुनाता हूं. गुज़िश्ता लखनऊ का नहीं. आज के लखनऊ का. एकदम सच्चा. हर्फ-ब-हर्फ चेक किया जा सकता है.  जिस शहर में गोमती नगर है वहीं एक मेहदीगंज भी है. बस वो गोमतीनगर जितना मशहूर नहीं है. कभी उससे ज़्यादा मशहूर था. अपने सदियों पुराने शीतला देवी मंदिर के लिए... हकीम मेहदी ने बसाया था इसे. दिलचस्प किरदार था वो भी मगर उसके किस्से फिर कभी. अभी बात मेहदीगंज की. हां तो इसी मेहदीगंज में एक शमीम साहब उर्फ शम्मू भाई रहते हैं. पचास के पेटे में होंगे. लोवर मिडिल क्लास आदमी हैं जैसे मेहदीगंज में ज़्यादातर लोग हैं. छोटा मोटा काम-धंधा है मगर सुकून से जीने खाने को हो जाता है. दीनदार आदमी हैं. पांचों वक्त नमाज़ पढ़ने वाले. कहते हैं होश संभालने के बाद जुमा कभी नहीं छूटा. इंटर तक पढ़े हैं मगर बकायदा कढ़े हैं. ये तो हुई तम्हीद (भूमिका)... अब आगे सुनिए...

शम्मू भाई के घर के पास मेहदीगंज में एक चबूतरे पर बहुत पुरानी शीतला माता की चरण-पादुकाएं रखी हुईं थीं. ये चरण-पादुकाएं उतनी ही पुरानी मानी जाती थीं जितना यहां से कुछ दूरी पर स्थित मशहूर शीतला माता मंदिर. मगर चूंकि ये खुले आसमान के नीचे एक चबूतरे पर स्थित थीं तो इनका हाल बुरा था. मगर इस हाल के बावजूद मोहल्ले वाले ख़ासकर महिलाएं इनकी पूजा करती थीं. हालांकि चबूतरा सड़क पर था तो लोग, जानवर और गाड़ियां वहां से गुज़रते रहते थे जिस वजह से पूजा-आरती करने वालों को तो दिक्कत होती ही थी. सदियों पुरानी चरण पादुकाओं की हालत भी बिगड़ गयी थी. शम्मू भाई ने इस समस्या का समाधान करने के लिए चबूतरे पर एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया. जी हां, मंदिर मस्जिद की सियासत के दौर में एक मुसलमान ने मदिर बनवाया. आपको सुनके हैरत हुई होगी मगर मोहल्ले वालों को ज़रा भी हैरत नहीं हुई. क्योंकि वो बहुत सालों से देख रहे हैं शम्मू भाई को रामलीला में हिस्सा लेते. होली में रंग खेलते, बड़े मंगल के भण्डारे में सहयोग करते और शीतला माता का सम्मान करते.    तो शम्मू भाई ने मंदिर बनवाया. उस मंदिर की रंगाई-सजाई भी खुद की. खुद ही उसमें बेलबूटे बनाए. इस तरह चरण पादुकाएं सुरक्षित हो गयीं. इसके साथ ही जयपुर जाकर वो दुर्गा जी की एक छोटी सी प्रतिमा भी लाए और पूरे विधि विधान से मंदिर में उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करवाई. अखंड रामायन भी हुई. बारात यानी शोभायात्रा भी निकली. जिस दिन मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हुई थी शम्मू भाई की सरपरस्ती में हर साल उस दिन भंडारा होता है, जिसमें हिन्दू मुसलमान सब पंगत में बैठकर खाते हैं. और ये आज ही के लखनऊ की बात है दो चार सौ साल पुराने लखनऊ की नहीं. और हां, शम्मू भाई ने मंदिर इसलिए नहीं बनवाया है कि उन्हे कोई नेतागिरी करनी है. कोई सभासदी लड़नी है. वो शुरू से ही मेल-मिलाप वाले आदमी हैं.. 

और आप ज़रा शम्मू भाई के घर जाकर उनसे पूछिए कि इस सद्भाव की प्रेरणा उन्हे कहां से मिली ? वो कुछ कहें इससे पहले उनकी बेगम  कहेंगी कि इतनी कहांनियां सुनी हैं बचपन से लखनऊ की. न सुनी होतीं तो कुछ जानते ही न होते. नवाबों ने मंदिर बनवाए. हिन्दुओं ने मस्जिद बनवाई. तो हमने भी सोचा सिलसिला आगे क्यों नहीं बढ़ सकता. फिर शम्मू भाई बताएंगे- ‘शीतला माता हमारे मोहल्ले की पहचान हैं. मेहंदीगंज जाना ही उनके मंदिर से जाता है. इसलिए हिन्दू-मुसलमान उनको सब मानते हैं. यहां कभी हिन्दू मुस्लिम मामला नहीं रहा. कभी कर्फ्यू नहीं लगा. महिलाओं को पूजा करने में दिक्कत होती थी. चरण पादुकाएं खराब हो रही थीं तो ऊपर वाले ने हमसे मंदिर का काम करवा लिया. अगर वो न चाहता तो क्या हम एक ईंट भी रख सकते थे ?’ अगर इसके बाद भी आपने शम्मू भाई से कहा कि आज के दौर में ये जानके हैरत होती है कि मुसलमान ने मंदिर बनवाया. शम्मू भाई हंसते हुए आपसे कहेंगे कि हैरत उन्ही को होगी जो इस मुल्क इस शहर को नहीं जानते. जो हमारे बड़े बूढ़ों ने किया है वही हम कर रहे हैं. यकजहती और रवादारी इस मुल्क का सदियों पुराना सरमाया है. तभी तो इमाम हुसैनअ.स. आखिरी वक्त में यहां आना चाहते थे...

और इस तरह ये क़िस्सा तमाम होता है.

क्या अब भी आपको लगता है कि ये ‘लखनऊ लखनऊ’ महज़ माज़ी के हसीन औराक़ की बातें हैं. क्या अब भी आपको लगता है कि इस कहानियों को दोहराने का कोई फ़ायदा नहीं ?  क्या अब भी आपको लगता है कि आज के लखनऊ से इनका कोई वास्ता नहीं. अगर हां तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना...

नाकूस-ए-बरहमन से सदा-ए-अज़ां सुनी
मस्जिद से मैने कस्द किया सोमनाथ का

-जान-ए-आलम वाजिद अली शाह ‘अख़्तर’   

नोटः  यह चिट्ठा हिमांशु बाचपेयी जी के फेसबुक नोट से साभार बिना सम्पादन के यहाँ चस्पा किया गया है.  

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