मेरी आवारगी

वो खाली कमरे...रूह की सीलन और आपका जाना...!!

बीती होली में बब्बा के साथ ली गई आखिरी सेल्फी।

बीती होली में बब्बा के साथ ली गई एक सेल्फी।

यूँ तो आँख से खारा पानी बहने से बेहतर है कुछ शब्दों का कलम से झर जाना। क्योंकि दर्द लिखे हुए से बहे तो अपना रोना रीत जाता है। आपको निपट अकेला कर गए बुजर्गों के खाली कमरे, उनकी दीवारें, उनका रंग, उनके साथ-साथ बूढ़ी हुई कुर्सियां और आले...ये सब जब एक साथ बातें करते हैं, तो रूह की दीवारों का सीलन आँख के कोरों से टपकने लगता है। हर शब्द आह बनकर आंसुओं की स्याही से कागज पर उतरता है, जैसे वो दर्द का समंदर लिए हो।

अब गांव के घर में एक नहीं ऐसे दो कमरे हो गए हैं, जिनमें दादा-दादी के साथ धीरे-धीरे बूढ़ी हुई ढेरों चीजें हैं। दादी के कमरे की खाट, दादा जी के कमरे का तख्त, कुछ खूटियां और आले-अरमारी। जैसे हर चीज उनके आखिरी समय की गवाह हो। कभी-कभी सोचता हूँ, तो लगता है कि हमसे ज्यादा इन कमरों की हर निर्जीव चीज ने उनका दर्द महसूस किया है। शायद उनके साथ भोगा भी होगा। गांव से रोजी-रोटी के चक्कर में शहरों की धूल फांकते एक दशक से ज्यादा वक्त हो गया है। ये सोचने पर बहुत तकलीफ होती है कि ये सारा समय मैं उनके साथ नहीं रहा। उन्हें बूढ़ा होते, उनकी झुर्रियों को और स्याह होते, हड्डियों को घुलते, उनके शरीर को ढलते, उनकी आंखों के नीचे के गहरे होते गड्ढे, शरीर के हर हिस्से में सूखकर झूलती खाल ये सब मैंने उतने करीब से महसूस नहीं किया, जितना अब खाली हो चुके उन कमरों ने किया है। मुझसे खुशनसीब तो ये कमरे और बेजुबान चीजें हैं, जो उनके हर दुःख-दर्द के साथी रहे हैं। उनकी छुअन, उनकी गन्ध और उनके पोर-पोर में होने वाले दर्द के साक्षी रहे हैं। शायद हर बुजुर्ग के कमरे और उनके साथ बूढ़ी हुई चीजों के बीच कुछ ऐसा ही दर्द का रिश्ता होता होगा। अब महज अफ़सोस है कि बस ये अहसास जिंदा है, उनकी यादें जिंदा हैं, दादा-दादी के साथ गुजरा हर पल जिंदा है।

करीब 6 साल से ज्यादा वक्त हो गया दादी मां को गुजरे हुए ( देहावसान -सितम्बर 2014)। गांव के घर का वो उनका कमरा आज भी अहसास कराता है, उनकी मौजूदगी का। घर के दलान से लगा वो उनका कमरा, जब भी उससे गुजरता हूँ। अक्सर जेहन से एक आवाज़ उठती है, "काय रे दिपुआ तना हमाई मच्छरदानी तो लगा दे अउर एक गिलास ठंडो पानी लाना दो घिनौची से बोर के"। प्रेम में पगी दादी की गालियां और उनका निश्छल लाड़ रूह तक पसर जाता है।

आज 2 जून 2019 को दादा जी ने भी अंतिम सांस ले ली। उनका स्वर्गवास भी गांव के घर के अपने कमरे में ही हुआ। लगभग एक दशक हो गया उन्हें बिस्तर पर सारी दिनचर्या को अंजाम देते हुए। न जाने कितना कष्ट सहा होगा, हर बार गांव जाकर देखता, तो लगता था कि इस अवस्था में दर्द झेलने से बेहतर है कि इनका महाप्रयाण हो जाये। पिछले एक माह से केवल लिक्विड डाइट पर रहते हुए भी मौत से जूझ रहे थे। कई बीमारियां झेलीं और उबर गए, लेकिन उसके बाद जो बिस्तर पकड़ा तो मानो वो उनके आखिरी सफर तक का हमदर्द रहा, साथी रहा। कल ही सुबह तो सतना पहुंचा था और फिर गांव। बस एक आखिरी दिन जो उनके साथ गुजार सका और अगली सुबह भी न हो सकी।

जीवन में कुछ रिक्त स्थान ऐसे होते हैं, जो हमेशा रिक्त ही रहते हैं। उन्हें भर पाना नामुमकिन है। बब्बा (दादा जी) आपका जाना भी कुछ ऐसा ही है। आंख की कोर से टपक रहे हर आंसू के साथ मैं भी शायद उस दर्द से रीत रहा हूँ, जो आपके साथ न रह पाने का है। आंसुओं के साथ कुछ अंदर का गुबार, ग्लानि और दर्द भी शब्दों के साथ झर रहा है। सामने बॉडी फ्रीजर में रखी आपकी मृत देह को अपलक देख रहा हूँ। अंतिम संस्कार के लिए सुबह का इंतजार है। रात का सन्नाटा जेहन के अंदर पसर रहा है और आपके साथ गुजरे खूबसूरत वक्त की कुछ धुंधली और उजली यादें पसर रही हैं। मैं पूरी तरह इस दर्द से रीत जाना चाहता हूं, लेकिन ये मुमकिन नहीं लगता। घर के सामने चौराहे पर लगा पीपल का पेड़ हवा के झोंके से लहरा रहा है। हवा की इस सरसराहट के बीच बॉडी फ्रीजर के स्टेपलाइजर की बीप अंदर गहरे तक धंस रही है। जैसे मेरे और बॉडी फ्रीजर के बीच कोई संवाद हो, किसी शून्य में जाने का संवाद, एक अदद  रवानगी का संवाद, महाप्रयाण का संवाद और एक आखिरी मौन। ये घड़ी भी बीत जाएगी, लेकिन इस काली रात से उपजा अंधेरा हमेशा हमारे जीवन का हिस्सा बन जाएगा। ये रिक्तता कभी नहीं भरेगी। शेष रह जाएंगी बस आपकी स्मृतियाँ..!! अभी तो बस आपको अपलक यूँ देखने का आखिरी सुख भोग रहा हूँ, क्योंकि इस रात की कोई सुबह नहीं ...इस रात की कोई सुबह नहीं...!!

#आपको विदा है...विदा है...विदा...अंतिम विदा...बब्बा।

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