"ये नालायक भतीजे और लोकतंत्र के दरवाजे"
तो फिर एक भतीजा नालायक निकला। बेटी ने मान लिया परिवार और पार्टी दोनों टूट गई है। चाचा हाथ में माइक पकड़े सफाई दे रहे हैं। विशेष भारतीय गालियां निकल आई हैं। कुछ-कुछ वैसी ही फिलिंग आ रही है, जो सीरियल्स और सिनेमा में द्रोपदी के चीर हरण के दृश्य के समय धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह को देखकर आती है।
जो कहते हैं, दु:शासन ये पाप है, अन्याय है, अत्याचार है और बेपरवाह दु:शासन साड़ी खींचता रहता है। किसी को न द्रोपदी की चीख सुनाई देती है और न उसकी उधड़ती लाज दिखाई देती है। कुछ शकुनी खींसे निपोर देते हैं, कहते हैं, राजनीति में सबकुछ जायज है। इतिहास अपने पन्ने पर एक और अध्याय दर्ज कर लेता है। लोकतंत्र का दरवाजा और चौड़ा हो जाता है। नई गुंजाइश निकल आती है।
और क्या ड्रामा है, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दम भरने वाले भारत के सियासी मंच पर होता है। एक पखवाड़े से तीन पार्टियां अकड़-बक्कड़ खेल रही हैं। मुलाकातों का दौर चल रहा है। तय माना जाने लगता है कि शिवसेना इतिहास रचने जा रही है। 56 का सीना सिर्फ किसी एक नेता की जागीर नहीं है। 56 विधायक के बूते कोई उद्धव भी है, जो 145 का इंतजाम करने निकल पड़ा है। रथ के सारथी संजय राउत हैं, जो रोज बयानों का मिर्च-मसाला डालकर इस ड्रामे में रोमांच भर रहे हैं। बैठकों में कैपेचिनों से ज्यादा सियासी ख्वाहिशों की गंध तैर रही है। दिल्ली का प्रदूषण भी इसके आगे पानी भरता है।
इधर अलग ही वैराग्य पसरा पड़ा है। सत्ता को लात मारकर मनमोहन को सरदार बनाने वाली सोनिया उसी बैरागी चोले में है। बैठकें करती हैं, लेकिन कुछ तय नहीं करतीं। फैसला नहीं लेतीं। कभी कहती हैं, अभी कुछ साफ नहीं है। एनवक्त पर प्रेस नोट बदल दिए जाते हैं। इतिहास करवट लेते-लेते फिर औंधा पड़ जाता है। फिर तय होने लगता है। लगता है जैसे दही मथा जा रहा है। कोई गलती न हो आगे, इसलिए फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाया जा रहा है। बाद में पता लगता है कि इतनी जोर से भीमसेनी फूंक मारी गई है कि पैरों से जमीन ही खिसक गई है। हांडी खोलकर देखते हैं तो मालूम होता है कि वह खाली है बस मथनी घूमाने का ड्रामा चल रहा है।
पवार अपने ही अंदाज में है। खुद का सियासी कद इतना है कि अगड़-बगड़ बोलकर भी जनता के करीब बने रहते है। विदेशी के मुद्दे पर जिस पार्टी से किनारा करते हैं, हमेशा उसके साथ बने रहते हैं। उसी की सलाह से हर फैसला करने का स्वांग दिखाते हैं। कभी कहते हैं उद्धव का फोन नहीं आया, कभी दोहराते हैं किसानों की समस्या पर बात की। ढाई घर चलने के माहिर हैं ये तो सब जानते हैं, लेकिन उनकी नाक के नीचे ऐसा खेल भी नहीं रोक पाएंगे, यह मासूमियत कोई हजम नहीं कर पा रहा है। शाम तक कोई बैठक में है और आधी रात को जाकर राज्यपाल को समर्थन पत्र सौंप देता है। अस्तबल से सारे घोड़े छूटने के बाद आप अब भी आंकड़ों की बात कह रहे हैं।
फिर भाजपा साबित कर देती है कि वह 13 दिन में सरकार समेटकर बैठने वाले अटलजी की भाजपा नहीं है। कर्नाटक की तरह उछल-कूद की सियासत का पन्ना भी वह मंदिर की नींव में दबा आई है। वह चुप रहना सीख गई है। बोलकर बवाल करने के बजाय पटाखा फोड़कर दूसरों का बोलने का मौका देने का हुनर जानती है। कोई कुछ नहीं बोलता, अचानक संसद के 250वे सत्र की शुरुआत में मोदी एनसीपी की तारीफ कर देते हैं। बैठक भी कर लेते हैं। प्रदूषण को लेकर संसदीय बैठक में प्रकाश जावड़ेकर भी इसे आगे बढ़ाते हैं। शाही बयान आता है, दोहराते हैं होए वही जो राम रची राखा। और उसी को होना पड़ता है। फणनवीस फिर देवेंद्र हो जाते हैं, पवार अजीत कहलाते हैं।
और इधर महामहिम आधी रात के बाद समर्थन पत्र स्वीकार करते हैं, सवेरा होने से पहले राष्ट्रपति शासन समेट लेते हैं। सुबह होने भी नहीं देते और नई सरकार को शपथ दिला देते हैं। रात को पलक भी झपकी होगी या नहीं, कहना मुश्किल है। लोकतंत्र की बहाली के लिए उनकी ये छटपटाहट और त्याग इतिहास कभी नहीं भूल पाएगा। और हम भारत के लोग फकत इस उम्मीद के साथ यह ड्रामा देखते हैं कि कभी तो वह वक्त आएगा, जब लोकतंत्र के ये दरवाजे हमारे मसलों के लिए भी ऐसे ही रात-बिरात खुलेंगे। जय हिंद, जय महाराष्ट्र, जय सियासत।
नोट: यह पोस्ट साभार वरिष्ठ पत्रकार अमित मंडलोई जी के फेेेसबुक पोस्ट सेे लिया गया है।
फ़ोटो साभार : गूगल |
फ़ोटो साभार : गूगल |
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तो फिर एक भतीजा नालायक निकला। बेटी ने मान लिया परिवार और पार्टी दोनों टूट गई है। चाचा हाथ में माइक पकड़े सफाई दे रहे हैं। विशेष भारतीय गालियां निकल आई हैं। कुछ-कुछ वैसी ही फिलिंग आ रही है, जो सीरियल्स और सिनेमा में द्रोपदी के चीर हरण के दृश्य के समय धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह को देखकर आती है।
जो कहते हैं, दु:शासन ये पाप है, अन्याय है, अत्याचार है और बेपरवाह दु:शासन साड़ी खींचता रहता है। किसी को न द्रोपदी की चीख सुनाई देती है और न उसकी उधड़ती लाज दिखाई देती है। कुछ शकुनी खींसे निपोर देते हैं, कहते हैं, राजनीति में सबकुछ जायज है। इतिहास अपने पन्ने पर एक और अध्याय दर्ज कर लेता है। लोकतंत्र का दरवाजा और चौड़ा हो जाता है। नई गुंजाइश निकल आती है।
और क्या ड्रामा है, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दम भरने वाले भारत के सियासी मंच पर होता है। एक पखवाड़े से तीन पार्टियां अकड़-बक्कड़ खेल रही हैं। मुलाकातों का दौर चल रहा है। तय माना जाने लगता है कि शिवसेना इतिहास रचने जा रही है। 56 का सीना सिर्फ किसी एक नेता की जागीर नहीं है। 56 विधायक के बूते कोई उद्धव भी है, जो 145 का इंतजाम करने निकल पड़ा है। रथ के सारथी संजय राउत हैं, जो रोज बयानों का मिर्च-मसाला डालकर इस ड्रामे में रोमांच भर रहे हैं। बैठकों में कैपेचिनों से ज्यादा सियासी ख्वाहिशों की गंध तैर रही है। दिल्ली का प्रदूषण भी इसके आगे पानी भरता है।
इधर अलग ही वैराग्य पसरा पड़ा है। सत्ता को लात मारकर मनमोहन को सरदार बनाने वाली सोनिया उसी बैरागी चोले में है। बैठकें करती हैं, लेकिन कुछ तय नहीं करतीं। फैसला नहीं लेतीं। कभी कहती हैं, अभी कुछ साफ नहीं है। एनवक्त पर प्रेस नोट बदल दिए जाते हैं। इतिहास करवट लेते-लेते फिर औंधा पड़ जाता है। फिर तय होने लगता है। लगता है जैसे दही मथा जा रहा है। कोई गलती न हो आगे, इसलिए फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाया जा रहा है। बाद में पता लगता है कि इतनी जोर से भीमसेनी फूंक मारी गई है कि पैरों से जमीन ही खिसक गई है। हांडी खोलकर देखते हैं तो मालूम होता है कि वह खाली है बस मथनी घूमाने का ड्रामा चल रहा है।
पवार अपने ही अंदाज में है। खुद का सियासी कद इतना है कि अगड़-बगड़ बोलकर भी जनता के करीब बने रहते है। विदेशी के मुद्दे पर जिस पार्टी से किनारा करते हैं, हमेशा उसके साथ बने रहते हैं। उसी की सलाह से हर फैसला करने का स्वांग दिखाते हैं। कभी कहते हैं उद्धव का फोन नहीं आया, कभी दोहराते हैं किसानों की समस्या पर बात की। ढाई घर चलने के माहिर हैं ये तो सब जानते हैं, लेकिन उनकी नाक के नीचे ऐसा खेल भी नहीं रोक पाएंगे, यह मासूमियत कोई हजम नहीं कर पा रहा है। शाम तक कोई बैठक में है और आधी रात को जाकर राज्यपाल को समर्थन पत्र सौंप देता है। अस्तबल से सारे घोड़े छूटने के बाद आप अब भी आंकड़ों की बात कह रहे हैं।
फिर भाजपा साबित कर देती है कि वह 13 दिन में सरकार समेटकर बैठने वाले अटलजी की भाजपा नहीं है। कर्नाटक की तरह उछल-कूद की सियासत का पन्ना भी वह मंदिर की नींव में दबा आई है। वह चुप रहना सीख गई है। बोलकर बवाल करने के बजाय पटाखा फोड़कर दूसरों का बोलने का मौका देने का हुनर जानती है। कोई कुछ नहीं बोलता, अचानक संसद के 250वे सत्र की शुरुआत में मोदी एनसीपी की तारीफ कर देते हैं। बैठक भी कर लेते हैं। प्रदूषण को लेकर संसदीय बैठक में प्रकाश जावड़ेकर भी इसे आगे बढ़ाते हैं। शाही बयान आता है, दोहराते हैं होए वही जो राम रची राखा। और उसी को होना पड़ता है। फणनवीस फिर देवेंद्र हो जाते हैं, पवार अजीत कहलाते हैं।
और इधर महामहिम आधी रात के बाद समर्थन पत्र स्वीकार करते हैं, सवेरा होने से पहले राष्ट्रपति शासन समेट लेते हैं। सुबह होने भी नहीं देते और नई सरकार को शपथ दिला देते हैं। रात को पलक भी झपकी होगी या नहीं, कहना मुश्किल है। लोकतंत्र की बहाली के लिए उनकी ये छटपटाहट और त्याग इतिहास कभी नहीं भूल पाएगा। और हम भारत के लोग फकत इस उम्मीद के साथ यह ड्रामा देखते हैं कि कभी तो वह वक्त आएगा, जब लोकतंत्र के ये दरवाजे हमारे मसलों के लिए भी ऐसे ही रात-बिरात खुलेंगे। जय हिंद, जय महाराष्ट्र, जय सियासत।
नोट: यह पोस्ट साभार वरिष्ठ पत्रकार अमित मंडलोई जी के फेेेसबुक पोस्ट सेे लिया गया है।
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