मेरी आवारगी

ओछी हो गई है तुम्हारी राजनीति


सुनो ओछी हो गई है तुम्हारी राजनीति
सड़ गया है तुम्हारा कथित राष्ट्रवाद
वोट बैंक तक सिमट गया है सौहार्द
तुम इंसान नहीं देखते हो हम सबमें

तुमने दलित-सवर्ण, औरत-मर्द
हिन्दू और मुस्लिम बना दिए हैं
हर रंग के मतलब साध लिए हैं
मानवता का रंग खो गया है अब

तुम सबने पार्टियों के मुखौटे ओढ़े हैं
नेता कहलाने के लायक नहीं रहे तुम
इतना जहर तो विषधर में भी नहीं है
कैसे डस रहे हो देश की तहजीब को

मैं क्यों कहूँ कि ये रंग मेरा है वो उसका
हम सब रंगबिरंगे हैं और तुम फीके
जब रंग जाना इस देश के सच्चे रंग में
तब आना भूख और रोटी की बात करेंगे

अभी चले जाओ नजरों के सामने से
मुझे मक्कारी की बू आर ही है तुमसे
मैं प्रेम की खिचड़ी वाला भारत हूँ
सबके हिसाब से बंटा नहीं हूँ खांचों में

तुम चीर नहीं सकते मेरी तासीर को
मैं था हूँ और सदा रहूंगा हर किसी में
दिलों में ज़िंदा हूँ और धड़कता रहूंगा
तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हो

और सुनो ये राजनीति सड़ गई है
जो फूली सरसों सी लहलहा जाए
किसान के मन का कोना हरा कर दे
उसे लेकर चले आना मेरे पास
हम साथ चलेंगे पानी से बहते हुए
फिलवक्त अपने मनसूबे मरे हुए समझो

© दीपक गौतम
7/3/2016 को लिखी
एक पुरानी कविता। 


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