मेरी आवारगी

नीली चादर और वह छेद : पंकज मिश्रा

पंकज मिश्रा / फ़ोटो : साभार फेसबुक

बचपन में बाबा कहा करते थे- दूर आसमान में तारों के उस पार भगवान रहते हैं। मेरे बाल मन में बाबा ने जो भी रंग भरे थे, वे मेरी प्यारी-सी दुनिया बनाते थे।

आसमान नीली चादर की तरह तना हुआ भगवान के घर का तिलिस्मी पर्दा था। मैं सोचता था कि ये पर्दा अभी एक पल को भी हटा तो उस पार भगवान का घर देख लूँगा।  इसी इंतजार में घंटों आकाश की ओर टुकुर टुकुर ताकता रहता था।

भगवान ने नीली चादर क्यों तान रखी है! ऐसा भी पर्दा क्या? आखिर कई दिनों की माथापच्ची के बाद नतीजा यह निकला कि भगवान ने अपने घर को नजर लगने से बचाने के लिए पर्दा कर रखा है।

उन्हीं दिनों मेरे घर के दरवाजे पर टाट पट्टी से बना हुआ एक पर्दा लगा रहता था, जिसमें उधड़ कर एक छेद हो गया था, करीब मेरे चेहरे के बराबर छेद। पर्दे पर लटकते हुए उस छेद से घर के अंदर की ओर देखना न जाने क्यों बहुत अच्छा लगता था। सामने की ओर लाल दरवाजे वाली एक कोठी थी। उसके नीचे मिट्टी का एक चूल्हा था, जिस पर रोटी सेकती अम्मा का चेहरा अभी भी सामने है। जेठ की तपती दोपहरी में अम्मा का चेहरा गर्मी से लाल हो जाता था। आग बुझने लगती थी तो वे उसे फूंक-फूंक कर जलाने की कोशिश में खाँसते हुए बेदम होने लगती थीं। आग जलने लगती तो अम्मा फिर से जुट जाती थीं। एक लय में उनके हाथ चलते थे।

पर्दे के बीच में चेहरा डालें यह बच्चा अपनी माँ की इसी लय पर मुग्ध था। यही लय थी जो कच्ची मोटी-मोटी दीवारों और घुन खाई शहतीरों वाले घर में खनक भर देती थी।

मैं उसी घर को देखता था, खुश होता था और पसेरी भर आटा पकाकर थकान से दोहरी माँ की गोद में जाकर दुबक जाता था।

अम्मा की देह में एक गंध थी, जहाँ जीवन रस से भर जाता था।

अम्मा अब बिस्तर से उठ नहीं सकती हैं।

वह गंध गुम हो गई है। लय गुम है। वह खनक अब कहीं चली गई है।

कुछ दिन बाद पर्दा टूट कर गिर गया। फिर ऐहतियातन दरवाजा बंद रखा जाने लगा, जिसे पार देखना मुश्किल था। दरवाजा अब भी है लेकिन बंद है। मैंने अभी इस होली एक सुंदर-सा पर्दा खरीदा है लेकिन उससे माँ की दुनिया नहीं दिखती है।

उन्हीं दिनों जब मैं नीली चादर के उस पार की कल्पनाओं में खोया रहता था और सोचता था कि मेरे पर्दे की तरह ईश्वर के इस नीली चादर वाले परदे में कोई न कोई छेद तो जरूर होगा, जिससे वह इस धरती का हाल हवाल लेता होगा।

वह छेद अभी भी होगा और नीली चादर के पार बैठा ईश्वर अपनी बनाई इस दुनिया पर शर्मिंदा तो जरूर होगा।

नोट : यह संस्मरण वरिष्ठ पत्रकार पंकज मिश्रा भैया की फेसबुक वाल से साभार लिया गया है। 

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