तस्वीर : साभार पीटीआई /गूगल |
मैं दंगा हूँ...!!
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मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
मैं लाल लहू से रंगा हूँ
नफरत ही लिबास है मेरा
असल में, मैं तो नंगा हूँ।
बढ़ती हिंसा के इस दौर में
मैं सबसे भला और चंगा हूँ।
असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
घृणा में डूबी अक्लों में,
मरती इंसानियत की शक्लों में,
टुच्ची राजनीति की नस्लों में,
वोट बैंक की इन फसलों में,
झूठे बयानों की म्यानों में,
मैं ही केवल हरियाता हूँ।
असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
मैं मौत बांटता रहता हूँ।
प्यार निगलता चलता हूँ।
ज़हर उगलता चलता हूँ।
नफ़रत के अंडे देता हूँ।
अज़गर की खाल में जिंदा हूँ।
असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
क्यों मुझे हवा देते हो तुम,
नफरत की एक चिंगारी से,
हर रोज भड़क उठता हूँ मैं,
अफवाह की बस एक आँधी से,
मैं बस्तियां उजाड़ने में माहिर।
चैन-ओ-अमन बिगाड़ने का,
बस एक मैं ही हथकंडा हूँ।
असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
सड़क में जलती लारी से,
तिल-तिल मरती खुद्दारी से,
बढ़ती हिंसा की यारी से,
अपनों की गद्दारी से,
कमजोरों की लाचारी से,
बेचारों की बेचारी से,
मैं सांसें लेकर आबाद हुआ।
असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
तुम आग दफ़न कर लो अंदर।
न आए मजा जो जीने में,
फिर ज़हर बुझा लो सीने में,
ख़ंजर भोको यारानो में,
सरेआम जलते अरमानों में,
बागानों में-दुकानों में,
धूँ-धूँ करते मकानों में,
इस मंजर को भुनाने में,
असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
अरे मार-काट कर खून पियो।
सड़ती लाशों की दुर्गंध में जियो,
तुम इंसाँ कहलाने के हक़दार नहीं,
इंसानीयत के वफ़ादार नहीं,
एक हाथ कटा है उधर पड़ा,
एक पैर का चिथड़ा इधर पड़ा,
सीने के टुकड़े बिखर गए,
सिर का सिरा मिला नहीं,
बस लहू की लाली फैली है,
मज़हब का कोई पता नहीं,
मासूमों का कत्लेआम यहाँ,
जब किसी के लिए दगा नहीं,
फिर मैं क्यों शर्मिंदा हूँ।
असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।
© आवारा
3/2/2020
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असल में तुम सब मुर्दा हो,
बस एक मैं ही जिंदा हूँ।
मैं दंगा हूँ, मैं दंगा हूँ।