चित्र साभार : गूगल |
लगभग मीडिया का नेचर ऑफ वर्क यही है कि साल के 365 दिन यहां काम चालू ही रहता है। ऐसे में यहां काम का दबाव, उसकी प्रकृति, आचार-व्यवहार और चुनौतियां एकदम भिन्न हैं। इसलिए यहां जब कुछ घटता है, तो उसकी कहीं सुनवाई नहीं होती, वो हकीकत बस वहीं दबी रह जाती है।
बहरहाल ताजा मामला जबलपुर का है, जहां नवदुनिया भोपाल वाला किस्सा दोहराया जा रहा है। फिलहाल नव दुनिया के साथी तो कोरोना की जंग जीतकर लौट आये हैं, लेकिन कुछ जगहों में हालात बहुत खराब बने हुए हैं। कुप्रबंधन और अमानवीय व्यवहार के चलते पत्रकारों का जीना मुहाल है। कुछ मित्रों के मित्रों के मार्फ़त पत्रिका जबलपुर का हाल पता चला, तो लिखे बिना नहीं रहा गया। यहां काम कर रहे कुछ लोगों के नम्बर लेकर बात की, तो पता चला कि यहां भी वर्क फ्रॉम होम की जगह नव दुनिया वाली कहानी दोहराई जा रही है। यहां भी कोविड-19 से जुड़े सभी दिशा-निर्देशों को ताक पर रखकर जबरिया दफ्तर से काम करने का दबाव बनाया जा रहा है। ऊपर बैठे लोग अपने क्षणिक हित साधने के लिए संपादकीय सहयोगियों की जान खतरे में डाल रहे हैं।
यहां की यूनिट से लगभग 30 लोगों को पहले ही संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। इसमें से लगभग 10 लोग सम्पादकीय विभाग के हैं। गिनती के बचे 10 रिपोर्टरों और 11 उप संपादकों की बदौलत काम हो रहा है। उस पर भी ज्यादातर साथियों की तनख्वाह में 35 से 40 फीसदी की कटौती कर दी गई है।
पत्रकार साथियों की शिकायत है कि यहां ऑफिस में न सैनिटाइजर है ना निगम वाले सैनिटाइज करने आते हैं। सिर्फ टॉयलेट में साबुन रखा गया है। संपादकीय विभाग में सिटिंग अरेंजमेंट भी इतना खराब है कि लोग एक दूसरे से चिपक कर बैठने को मजबूर हैं। साथी लोग लगातार कह रहे हैं कि भोपाल नव दुनिया का दफ्तर सील होने के बाद भी पत्रिका जबलपुर वाले इस घटना से सबक नहीं ले रहे हैं। कल तक मिली जानकारी के अनुसार यहां वर्क फ्रॉम होम लागू नहीं किया गया है।
आलम यह है कि जिम्मेदार अपनी कुर्सी बचाने के लिए कर्मचारियों की समस्याओं को अनदेखा कर रहे है। बस किसी तरह से अखबार निकलता रहे इसी उद्देश्य से काम हो रहा है। एक पुरानी कहावत है कि "अपना मतलब साधो, भाड़ में जाये माधो''। यहां के हाल भी कुछ ऐसे ही हैं, जिसके चलते सभी संपादकीय सहयोगियों में कोरोना के संक्रमण को लेकर डर पसरा है। विरोध के स्वर उठते ही साथियों को बार-बार नौकरी से निकालने की धमकी दी जाती है। इसलिए हर कोई भय के माहौल में मीडिया मजदूरी करने को मजबूर है।
पत्रिका दफ्तर आरके टावर आमनपुर से तैय्यब अली पेट्रोल पंप के पास पहुंच गया है, जहां 2600 वर्गफीट के दफ्तर में लोग काम कर रहे है। सबसे ज्यादा परेशानी संपादकीय विभाग को है। जहां 6 गुणा 15 के हाल में 12 लोग काम कर रहे हैं। इसमें बैठक व्यवस्था ऐसी है कि आपस में एक फीट की दूरी भी नहीं है। ऐसे में कई लोग सर्दी खांसी के शिकार अन्य लोगों के संपर्क में आ रहे हैं। विभाग के कई लोगों ने वर्क फ्राम होम की इच्छा जताई तो काम में कई गलितयां बताकर नौकरी जाने का फरमान जारी किया गया। अब कर्मचारियों के साथ-साथ उनके परिवारों के बच्चे-बूढ़े भी दहशत में है। यदि किसी को कुछ होता है, तो जिम्मेदार कौन होगा ? ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब इन दिनों ढूढने से भी नहीं मिल रहे हैं।
एक बड़ा सवाल यह भी है कि साल दर साल करोड़ों का मुनाफा कमाने वाले तमाम मीडिया संस्थानों का आर्थिक ढांचा इतना कमजोर क्यों है? अब जब कुछ माह अपने कर्मचारियों को बिना मुनाफा तनख़्वाह देनी पड़ रही है, तो सारे तंत्र की हवा निकल गई है। यही सवाल और दूसरे क्षेत्रों में काम करने वाली कम्पनियों से भी होना चाहिए।
इन तमाम कम्पनियों का कितना लचर आर्थिक ढांचा है कि एक से डेढ़ माह में सारी व्यवस्था की हवा निकल गई है, जैसे रेत का कोई महल हवा के थपेड़े से ढह गया हो। फिर भी यदि सैलरी काटनी ही पड़े तो 20 या 30 हजार मासिक वाले को तो बख्श दो भाई। इतनी महंगाई में वो घर कैसे चलाएगा भाई। इसलिए हे लाखों की तनख्वाह उठाने वाले खबरनवीसों थोड़ा सा लिहाज करो और नीचे बैठे लोगों को कम से कम इंसान तो समझ ही लो।
अंत में पत्रकार साथियों से इतना और कहता हूँ कि अब भी सोते मत रहिये। इस समय आपके साथ हो रही हर समस्या पर खुलकर लिखिये-बोलिये, ताकि समाज तक ये सच पहुंच सके। लोग आपके साथ खड़े हो सकें। और हां नव दुनिया वाली पोस्ट को लेकर जिन महानायकों ने इनबॉक्स में ज्ञान सुधा बरसाई थी। वो कृपया इस बार ये भूल न करें। मैंने एक दशक से ज्यादा इस व्यवस्था को बहुत करीब से जिया है। अब जब इन दिनों हर रोज कई पुराने अखबारी साथियों के दो से चार फोन नौकरी जाने या सैलरी आधी हो जाने सहित अन्य समस्याओं को लेकर आते हैं, तो मुझे भी बहुत कुछ समझ में आ ही जाता है। बाद बाकी ऐसा भी नहीं है कि पहली बार इस तरह का कुछ लिख रहा हूँ, उनके लिए पोस्ट बॉक्स में एक लिंक दे रहा हूँ मजीठिया को लेकर रपट लिखी थी। पढ़कर तसल्ली कर लें। अपनी क्षमतानुसार अखबार के दफ्तर में काम करते हुए भी पत्रकार साथियों का दर्द उकेरने की अपनी पहले भी पूरी कोशिश रही है।
© दीपक गौतम
नोट : इसे किसी मीडिया संस्थान या व्यक्ति विशेष के विरोध में न देखा जाये। यह उस व्यवस्था का विरोध है, जो इंसानी जिंदगियों को मशीन समझकर मानवीय दृष्टिकोण को परे रख बस केवल काम लेना जानती है।
#यह मजीठिया पर की गई उस रपट का लिंक है जिसका इस पोस्ट के लास्ट पैराग्राफ में जिक्र है।
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