मेरी आवारगी

बाई अब तुम्हारी स्मृतियों का उजाला ही शेष है

बाई के अंतिम क्षणों का एक चित्र

बाई (दादी माँ) जीवन से तुम्हारे ममत्व और प्रेम को ओझल हुए आज 7 साल हो गए हैं। तुम्हारे गालियों में पगे लाड़ और मीठी बुंदेली बोली की कमी आज भी जीवन में खलती है। घर के उस कोने से गुजरने का मन ही नहीं होता है, जहां तुमने आखिरी सांस ली थी।

मेरे कानों में तुम्हारे कहे वो अंतिम शब्द अब भी गूंजते हैं। जब तुमने कहा था कि ''दिपुआ हमें बहोत दर्द हो रओ हे कछु दवाई दे दो, जासे दर्द मर जाए पर डॉक्टर के पास न ले जाओ। हमाई तुमाओ ब्याव देखबे की खूब इच्छा है" मौत के एक घण्टे पहले मैं तुम्हें अपनी गोद में लिटाकर झूठे दिलासे दे रहा था कि तुम अच्छी हो जाओगी। ये जानते हुए कि तुम चंद घड़ी की मेहमान हो। प्रकृति के सामने आदमी कितना विवश है कि मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह हवा होती जिंदगी का मंजर देखना पड़ता है।

बाई मैं तुमसे कभी कह नहीं पाया, लेकिन मुझे तुम्हारी प्रेम में पगी गालियों की लत पड़ गई थी। अब उनकी बहुत कमी खलती है। प्रेम में पगी तुम्हारी गालियों के बिना जीना वैसा है जैसे नमक बिन साग। तुम अपने साथ जिंदगी का सारा स्वाद लेकर चली गई हो बाई। मैं यह लिखते हुए अपराध बोध से गहरे तक भर जाता हूँ कि तुमने सेवा का एक भी अवसर न दिया। तुम्हारे लिए सोचा हुआ बस सोचा ही रह गया।

तुमसे नोक-झोंक और गालियों का रिश्ता एक अकेला मैं नहीं सारा गांव याद करता है। प्रेम, करुणा और दया से लबालब तुम्हारे स्वभाव ने तुम्हें सबका करीबी बना दिया था। किसी गरीब की लड़की की शादी हो और तुम चुपचाप मदद कर आती थी। अब भी कई तबके के लोग यह कहते हैं कि बाई ने मेरी बेटी की शादी में मदद करते हुए कहा था कि "काहू से बताइयो न कि जो हमने करो है"। तुम्हारे जाने के बाद और अंतिम विदा के समय ऐसे कई किस्से सुनने को मिल गए थे, तब मुझे लगा था कि ये व्यक्तिगत क्षति नहीं थी। तुमने तो अपनी प्रेम और करुणा के वशीभूत तुम्हारे पास पहुंचे हर व्यक्ति को कर दिया था।

मैं सूने घर के कोनों और आंगन में अब भी तुम्हें महसूस करता हूं। कभी-कभी उन कोनों से उठती तुम्हारी आवाजें सुनता रहता हूँ। घर के उस बरामदे और कमरे से गुजरते वक्त अब भी लगता है कि किसी कोने से एक आवाज आएगी कि "दिपुआ तना हमाई मच्छरदानी फंसा दो" मुझे पता है तुम जहां भी होगी, वहीं से हम सब पर अपना लाड़ और प्रेम बरसा रही होगी। बाई मैं तुम्हारे इस लाड़ से कभी उऋण नहीं हो पाऊंगा। तुम तो जानती हो कि मैं कहे से नहीं अपने लिखे हुए से ही बह पाता हूँ। और अब शब्दों की ही तरह लिखते हुए मेरी आंख की पोर से तुम्हारी याद के मोती टपक रहे हैं। लेकिन मैंने तुम्हारी स्मृतियों का उजाला अपने पास सहेज रखा है। वह अब भी मेरे साथ है। मैं इसे सहेजकर रखूंगा। तुम्हारा दिया ये अनमोल खजाना सदैव मेरे पास सुरक्षित रहेगा। मैं इसे कभी चुकने नहीं दूंगा। क्योंकि जीवन में अब सिर्फ तुम्हारी स्मृतियों का उजाला ही शेष है।

- तुम्हारा दिपुआ

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