मेरी आवारगी

क्या दो-चार बलि लेकर ही तृप्त होंगे सम्पादक जी ?

जिंदगी इन दिनों/ चित्र साभार : गूगल
इन दिनों हर रोज कागज की लुगदी, स्याही की गंध और खबरों की शक्ल में गुथा अखबार जब आपके घर में दाखिल होता है, तो एक नज़र जी भरकर देख लिया करिये। क्योंकि उसका रंग अब लाल हो चला है। उसमें इंसानीयत के कत्ल के छीटे हैं।

मीडिया जगत में हर रोज दम तोड़ रही मानवीय संवेदना के किस्से लगातार सामने आ रहे हैं। आदमी को मशीन समझकर लगातार दफ्तरों से काम लेने की प्रवृत्ति कम होने का नाम नहीं ले रही है। देखने में यह आ रहा है कि जैसे-जैसे कोरोना का संक्रमण बढ़ रहा है। अखबार प्रबंधन और सम्पादक जी और ज्यादा गैरजिम्मेदार होते जा रहे हैं। वर्क फ्रॉम होम से काम चल सकता है, लेकिन दफ्तर आने का दबाव कम नहीं हो रहा है। उस पर भी तुर्रा यही है कि नौकरी चल रही है। हमारे रहमो-करम पर जिंदा हो। नहीं तो कबका मर गए होते। क्योंकि ये जो मरी सी तनख़्वाह में से इन दिनों 15 से 30 फीसदी तक कि कटौती करके हम तुम्हें दे रहे हैं। उसी में अपनी खैरियत समझो और सिंगल, डीसी, लीड, एंकर में ध्यान दो।

ताजा मामला अमर उजाला लखनऊ का है, जहां संक्रमितों की संख्या अभी 2 है। लेकिन यहां 6 लोगों को संक्रमण के खतरे की आशंका बताई जा रही है। इसीलिए एहतियातन शेष पत्रकार साथी जांच कराने में जुटे हुए हैं। अफरा-तफरी के माहौल के बीच खबर है कि सम्पादक जी ने तो दफ्तर आना छोड़ दिया है, लेकिन पत्रकारों को दफ्तर आना पड़ रहा है। लोगों के अंदर डर का माहौल है कि कहीं संक्रमितों में उनका नाम भी शुमार न हो जाये।

संक्रमितों को सख्त हिदायत दे दी गई है कि संक्रमण को लेकर किसी से कुछ नहीं कहना है। बस दबी में इलाज लेते हुए जीते-मरते रहना है। नहीं तो हम दिहाड़ी रोककर भूखों मार देंगे। प्रबंधन और सम्पादक जी इस बात को छुपाने पर जोर दे रहे हैं कि वहां कोई कोरोना संक्रमित है। क्योंकि उन्हें अखबार का दफ्तर सील नहीं कराना है। भले ही लोगों की जान चली जाए, पर अखबार छपने से न चूकने पाये। हालांकि लखनऊ के मीडिया जगत में संक्रमण को लेकर चर्चा तेज है।

लखनऊ के दूसरे अखबारों के साथी भी डरे-सहमे हैं कि कहीं उन्हें भी अपने किसी परिचित से कोरोना का संक्रमण जाने-अनजाने न मिल गया हो। इसके पहले ही अमर उजाला की ही गोरखपुर यूनिट में कोरोना अपने पांव पसार चुका है। यहां 4 संक्रमितों की पुष्टि हो चुकी है। ताजा खबर के मुताबिक गोरखपुर दफ्तर को सील कर दिया गया है और गोरखपुर एडीशन की जिम्मेदारी भी लखनऊ ऑफिस पर डाल दी गई है। इस कारण यहां के पत्रकारों पर काम का दबाव और बढ़ गया है।

आये दिन अखबारी दफ्तरों से संक्रमण की खबरें आम हो चली हैं। बावजूद इसके मालिकान और सम्पादकों की जुगलबन्दी वर्क फ्रॉम होम की जगह वर्क फ्रॉम दफ्तर को तवज्जो देकर मीडिया मजदूरों की जान से खिलवाड़ करने पर आमादा है। हालात बेहद चिंताजनक हैं। यदि यूँ ही चलता रहा तो संकट और गहरा सकता है। ऐसी खबरें पढ़-सुनकर तो यही लगता है कि सम्पादक जी लोग और अखबारी प्रबंधन जब तक दो- चार बलि नहीं ले लेंगे चेतेंगे नहीं।

इस सबके बीच खबर ये भी है कि नव दुनिया भोपाल के संक्रमित साथी कोरोना से जंग जीतकर तो लौट आये हैं, लेकिन उन्हें इस खतरे में डालने वाले अभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। साथियों के कोरेंटाइन का समय पूरा हुए बिना उन्हें फिर से दफ्तर बुलाया जा रहा है। जो बेहद अमानवीय है।

मीडिया जगत में इन दिनों जो चल रहा है। वो और दूसरे क्षेत्रों से ज्यादा भयावह है। इस समय देश में एक भी मीडिया संस्थान या मालिक नहीं है, जो ताल ठोककर कह सके कि हम अपने कर्मचारियों को पूरी सैलरी दे रहे हैं। जबकि बीते 2 से 4 दशकों में उन्हीं कर्मचारियों की मेहनत से ही मालिकान ने जमकर मुनाफा काटा है। अब जब दो-चार माह वही मुनाफा बांटने का समय आया है, तो सब पीछे हट गए हैं। क्योंकि सेठ जी की जमा पूंजी घटनी नहीं चाहिए। उसमें किसी तरह की कमी नाकाबिले-बर्दाश्त है।

आज चमकते हुए दिख रहे तमाम मीडिया संस्थान और उनका रुतबा धारदार खबरों और इन्हीं पत्रकार साथियों की जीतोड़ मेहनत का नतीजा है, जिन्हें आज पूरी तनख़्वाह देने में भी मालिकान असमर्थ दिखाई देते हैं। इस असमर्थता को यदि किसी भी तरह पचा लें तो भी पत्रकार साथियों को पर इन दिनों दबाव बनाकर मौत के मुंह में धकेलने वाला गैरजिम्मेदाराना व्यवहार समझ के परे है।

© दीपक गौतम

नोट : इसे किसी संस्थान या व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि उस व्यवस्था का विरोध समझा जाये, जो मीडिया मजदूरों को इंसान नहीं मशीन समझकर काम ले रही है। वास्तव में यह व्यवस्था उनकी जान लेने पर तुली हुई है।

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