एक रोज यूँ ही मिले इस अजनबी दोस्त का नाम तो मुझे नहीं पता है। लेकिन यूँ ही एक रोज मिल गया जिंदगी के किसी मोड़ पर। अभी चन्द रोज पहले की बात है। उस वक्त बस अनमने मन से इसकी कुछ तस्वीरें उतार ली थीं। ये मुझे एक बड़े आश्रम में मिला था, जहां मैं बड़े अशांत और व्यथित मन से शांति और कुछ समस्याओं के समाधान की खोज में गया था। उस वक्त मैं अपनी परेशानियों में घिरा था। इसने शायद मेरी पेशानी पर उभरी चिंता की लकीरें पढ़ ली थीं। इसलिए ये मुझ पर प्रेम बरसा रहा था। शायद यह भी हो सकता है कि इसे रोटी चाहिए थी। लेकिन मेरे पास सिवाय प्रेम के इसे देने के लिए कुछ नहीं था। फिलवक्त इसने मुझे प्रेम दिया मैं भी इसे वही कुड़ेलकर वहां से चला आया। ऐसा निश्छल प्रेम भला कहाँ मिल पाता है ? पता नहीं अब कभी इससे दोबारा भेंट होगी या नहीं। इसकी भूरी आंखों से बरसते प्रेम ने घड़ी दो घड़ी के लिए ही सही आत्मा का सारा सन्ताप हर लिया था। मस्त रहो अजनबी दोस्त। ईश्वर तुमसे यूँ भेंट न कराए जैसे अबकी हुई है। अगर तुमसे भेंट हो, तो मैं चाहता हूं कि तुम पर प्रेम की पुड़िया के इतर कुछ और खर्च सकूं।
भूरी आंखों वाले के साथ सेल्फी
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