मेरी आवारगी

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए





[ कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए ]

© ● दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए


तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए


जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए


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{ नोट : दुष्यंत कुमार के काव्य संग्रह "साये में धूप" से साभार }

‎तस्वीर : साभार गूगल बाबा

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1 Comments

baineudelhofen said…
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