मेरी आवारगी

अम्मा नहीं जानतीं कि ''वुमेन्स डे'' क्या बला है


छुटकी की शादी में चाची और अम्मा। इनके चेहरों की मुस्कान से ही अपना जीवन है।


इस तस्वीर में अम्मा गांव की कच्ची रसोई पर चिल्ला बना रही हैं।  कोपरी में रखे घोल को तवे पर डालकर डोसे जैसे सेंक देती हैं। हाथ से डोसा जितना पतला बना लेती हैं। बहुत स्वाद बनाती हैं। लव यू अम्मा।



अम्मा नहीं जानतीं कि ''वुमेन्स डे'' क्या बला है। उन्हें तो बस चूल्हा-चौंकी और गृहस्थी के खबार की ही हमेशा खबर रहती है। अपना सारा जीवन उन्होंने सम्मलित परिवार में रहकर परिवार की सेवा-सुश्रसा में ही खपा दिया। 14 साल की थीं जब ब्याह कर आईं। तब नानी जिंदा थीं, उन्होंने कहा कि 16 साल में दुसरता (दुरागमन) होगा। हुआ भी वैसा ही।

 
अम्मा पढ़ी-लिखी नहीं हैं। बताती हैं कि बचपन में उनके गांव में किसी शिक्षक ने डंडा मार दिया था, वही डंडा उनकी आत्मा पर घाव कर गया। अम्मा कहती हैं कि बिना किसी गलती के उनको डंडा मार दिया गया था। स्कूल के बगल में कहीं पानी पीने किसी कुएं पर गईं थीं, लेकिन माटसाहब ने कहा कि बगल के खेत में मिर्च तोड़ रही थी और उन्हें एक डंडा जड़ दिया। बस फिर क्या था स्कूली किताबें और गांव का स्कूल वहीं पीछे छूट गया और अम्मा जिंदगी का ककहरा सीखते हुए आगे निकल आईं।

 
नाना-नानी की लाड़ली थीं। दो भाईयों के बीच में अकेली बहन थीं, तो न पढ़ने की जिद पूरी होती चली गई। घर में भी जबरिया पढ़ाने वाले शिक्षक लगाए गए, लेकिन मज़ाल की अम्मा अक्षर अभ्यास को तरजीह देतीं। उन्हें मार से नफरत थी और पहले हर पढ़ाने वाले शिक्षक गाहे-बगाहे एक दो चांटे तो रसीद कर ही देते थे। बड़े मामा यानि अम्मा के बड़े भाई ने भी उन्हें पढ़ाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने भी चनकटिया दिया। बस चांटा मारने की उनकी इसी भूल ने अम्मा को पढ़ाई शब्द ही बिसरा दिया। अम्मा को पढ़ाई से नहीं मार खाने से चिढ़ थी। यूँ तो गिनती, दुनिया, ककहरा और थोड़ा बहुत नाम लिखने का अभ्यास उन्हें है। अब 64 साल की हो चली हैं, लेकिन चिठ्ठियों, लिफाफों और शादी के कार्ड वगैरा पर पिता जी या उनका लिखा नाम पढ़ लेती हैं। कभी हमने भी उन्हें हस्ताक्षर सिखाने की कोशिश की थी, जो सफल भी हुई।

 
गर यूँ कहूँ कि कायदे से अम्मा ने कभी ककहरा भी नहीं सीखा तो गलत नहीं है, लेकिन जिंदगी की किताब को उनसे बेहतर कोई नहीं पढ़ सकता है। मैं आज स्वभावतः जो भी हूँ, शायद थोड़ा-बहुत मनुष्य हो सका हूँ, तो अम्मा और चाची के बेहिसाब लाड़-प्यार की बदौलत। लापरवाह भी इसी लाड़ ने किया है और थोड़ी सी परवाह करना भी माताओं के ही बेहिसाब प्रेम की देन है। हे ईश्वर सबके जीवन में अम्मा का ये लाड़ बना रहने देना। सारी मातृ शक्ति को प्रणाम है।

 
अम्मा से ही सीखा है मैंने दोस्तों से लेकर प्रेमिकाओं तक सबको एक सरीखा प्यार लुटाना। दूसरों के दर्द में अपने आंसू बहाने का हुनर भी अम्मा की ही देन है। खुद भले ही कठिनाईयों और परेशानियों से झूझते रहो, लेकिन बात-बात पर झूठी ही सही पर एक मुस्कान हमेशा अपने चेहरे पर सजाए रखना। ये जो मैं जानवर से थोड़ा सा इंसान हो सका हूँ, सब अम्मा का ही करम है। फिर भी अब तलक बहुत कुछ सीखना बाकी रह गया है, क्योंकि अम्मा जिंदगी की किताब हैं, उन्हें पढ़कर सीख पाने में शायद ये जन्म चुक जाएगा। मैं धनी हूँ कि मुझे अम्मा का लाड़ तीनों भाईयों में सबसे ज्यादा मिला। किस्मत वाला भी हूँ कि अब जब उम्र के चौथे दशक की ओर बढ़ रहा हूँ, तो मुझे अम्मा का लाड़ औरों की तरह केवल वीडियो कॉल पर नहीं बल्कि सदृश्य जब चाहता हूँ, तब मिल जाता है। इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद।

 
आज घर की कच्ची रसोई पर बैठकर जब कलेबा करते हुए ये सब लिख रहा हूँ, तो अम्मा झाड़ू बुहारते हुए कह रही हैं, "बेटा उठ बैठ मोबाइल मा न घुसे रौ, जा देख आपन काम निपटाव नहीं ता सतना जांय खाँ अबयार होई जई"। तो मैं अब लिखना बंद कर रहा हूँ। उन सभी महिलाओं को ''हैप्पी वुमेन्स डे'' जिन्होंने बहन, दोस्त, प्रेमिका, काकी, भाभी या और दूसरे रूपों में मुझ जैसे बिगडैल, बेपरवाह और आवारा इंसान को थोड़ा सा ही सही मनुष्य होने में मदद की है। लव यू ऑल।
 
अम्मा पर अबके जाड़े में एक रोज ये छोटी सी कविता लिखी थी। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर दुनिया की सारी माताओं को यह समर्पित है।

 
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माँ रसोई में प्रेम पकाती है।
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माँ घर की कच्ची रसोई में अक्सर
सिर्फ भोजन नहीं प्रेम पकाती है।
स्नेह की धीमी आंच पर बड़े लाड़
के साथ जो पकवान बनाती है।
उसके चूल्हे की सूखी रोटी भी
56 भोग को मात दे जाती है।
उसने प्रेम की इसी मंद आंच में
अपना सारा जीवन होम कर दिया।
बुजुर्गियत के दौर में भी अपनी फिक्र
छोड़ चूल्हे-चौकी में जुट जाती है।
जब भी देखता हूँ उसकी आंख के नीचे
तिल-तिल बढ़ती झुर्रियों को, बस यही
लगता है कि माँ तो जीवन भर बच्चों के
लिए हांडी पर भोजन नहीं बस प्रेम पकाती है।
-17 नबम्बर 2020
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-8 मार्च 2021
© दीपक गौतम
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