मेरे प्यारे गाँव,
मैने पहले भी तुम्हें लिखा था कि तुम रूह में धंसी हुई कील हो, मेरी आत्मा का हाहाकार हो। प्यारे तुम्हारी याद किसी बिछड़ी हुई प्रेमिका के बिछोह वाली नहीं है, जो बिरह की पीड़ा की टीस से करेजा छलनी कर जाए। तुम्हें याद करना तो हमेशा सुख से भर देता है। कितनी ही स्मृतियों का संसार घुमड़ने लगता है। तुम्हारी सुनहरी धूप की तरह तुम्हारी यादों का लेप भी आत्मा का हर जख्म भर देता है। तुमसे उपजा प्रेम रूहानी है। उसी प्रेम के धागे से बुनी सुनहरी स्मृतियों की पोटली से छिटक कर आज एक याद का फाहा मेरी आंख की पुतली में आकर ठहर गया है। गोया कि उसमें किसी और दृश्य की कोई झलक ही नहीं दिखाई देती है। मैं भी बस वहीं ठिठक के रह गया हूं। उसी याद के फाहे से जैसे ध्यान के तार जुड़ गए हों और यूं समाधिस्थ होकर परम शांति महसूस हो रही है।
मेरे प्यारे,
तुम्हें तो पता भी नहीं होगा कि इस देह को भेदती गर्मी में जब शहर की सड़कों का पिघलता डामर गाड़ी के पहियों से चिपकता है, तो उसके साथ इक ऊब भी चिपक जाती है। हां वो तुम्हारी ऊब है। यकीनन तुम्हारी, ठीक उसी वक्त गाड़ी का पहिया धीमा हो जाता है और पहिये से चिपकते डामर से गाँव की याद चिपक कर चली आती है। सड़क से होता हुआ दिल अक्सर गाँव की कच्ची गली में उतर जाता है, जो गर्मी में आम के बगीचे तक ले जाती है। बगीचे में झूमता मिलता है वो अल्हड़ मदमस्त बचपन। आम की डाली का झूला, नदी का बहता पानी, कुएं में बना कबूतर का घोसला, अमराई में ही बना आम का पाल, पेड़ के नीचे बनी झोपड़ी और पके आम के साथ घर की रोटी का स्वाद ये अब एक साथ अंदर तक घुल जाता है। लगता है कि जैसे आम की मिठास में ही जीवन का सारा सार समाया है। तुम्हारी अमराई से आम तोड़कर पान किए आमरस में तो मानो अमृत का स्वाद हो, क्योंकि मैने तो उसी आमरस से अमरत्व चखा है। मुझे असल में अमरत्व की चाह नहीं है। मेरे लिए उसमें उतना रस ही नहीं है, जो तुम्हारी मिट्ठी की खुशबू और गलियों में घुला मिलता है।
मेरे प्यारे,
जब अलसाई सुबहों से घुलती तपन शाम के साथ-साथ ढलती है, तो दूर शहर की सबसे ऊँची इमारत के नीचे सूरज छिपता है। लेकिन वहीं तुम्हारे पास गाँव में खेत से लगा मैदान अपने दूसरे छोर पर ही सूरज को निगल लेता है। लगता है कि जैसे ढलता सूरज मैदान के दूसरे छोर से जमीन में ही समा गया है। मुझे गांव में बनी वो ऊंची सी पानी सप्लाई वाली टंकी अब भी याद आती है, जिसका पानी भले ही मैने न पिया हो लेकिन न जाने कितनी शामें उसकी छत की मुडेर पर बैठकर सूरज को ढलते हुए देखकर गुजारी हैं। अहा ! कितना सुखद अहसास था वो। ढलते सूरज के साथ भीषण गर्मी की शांत होती तपिश और मंद- मंद चलती पुरवइया सुकून से भर देती है। इसीलिए तुम्हारी सुबह और शाम कितनी अलग सी महसूस होती है।
मेरे प्यारे,
गांव तुम कभी-कभी अंदर तक धँस जाते हो। या यूं कहूं कि वहीं मेरे अंतस में जो समाया है,वो बाहर भी झलक जाता है। इस ऊब भरे गर्मी के मौसम में जब शहर की चिल्ल-पों के बीच ये तपन देह को भेदती है तो गांव के बाग की लू भी जैसे चेहरे को चूम जाती है। किसी नुक्कड़ पर कुछ ताश के पत्ते उछल रहे हैं तो अगले नुक्कड़ पे चौसर सजा दिखता है। घर के किसी कोने में चंदा-गोटी कौड़ियों के साथ बिछा है और दोपहर अपनी रवानी में धीरे-धीरे खिसक रही है। शाम होते ही ढोर खेत से लौटते हैं जिन्हें गर्मियों में फसल कटते ही ऐरा (आवारा ) कर दिया गया है। यूँ तो वो अक्सर लौट आते हैं, मगर जेठ भर उन्हें मनमर्जी से खेत, मैदान, बगीचे और बावड़ी किनारे चरने की छूट है। भला फिर ऐसे में वो क्यों इस मौज से वंचित रहें, सो गर्मियों में जानवर अक्सर थोड़ी देर से लौटते हैं। उनके लौटते ही मोहल्ले भर के कुत्ते चौराहे में जमा होकर भौंकना शुरू कर देते हैं। तब जाकर पता चलता है कि ये गोधूलि का समय है। अब आंगन में बने तुलसी के चौरे पर दिया जलाने का वक्त हो गया है। कुछ देर बाद ही गांव के प्राचीन शिवालय के घंटे सुनाई देने लगते हैं। इतने में ही तुम्हारे ध्यान में डूबे मेरे जैसे योगी की समाधि टूट जाती है। क्योंकि अनायास ही मेरा हाथ बाइक का एक्सीलेटर बढ़ा देता है और गाड़ी का पहिया तेज हो जाता है...शहर की सड़क का डामर उस पर चिपकना छोड़ देता है और गाँव तेरी याद दूर छिटक जाती है....गाड़ी आगे निकल जाती है.....। आम का मौसम है या गाँव की ऊब का। ये गर्मी पसीना ही नहीं यादें भी निचोड़ती है जो अंदर से पसीने के साथ बह निकलती हैं।
-- तुम्हें यादों में जीते हुए एक रोज आवारा। मैं तुम्हें फिर लिखूंगा तब तक अपना खयाल रखना मेरे प्यारे। कभी ये दो लाइना लिखा था तुम्हारे लिए सो ये भी तुम्हें समर्पित है।
"ख्वाबों पे जब नींद का पहरा हो जाए, यादों का आसमान गहरा हो जाए...वहीं ठिठके मिलेंगे बारिशों में भीगते 'आवारा' ढूंढ लेना इससे पहले के सावन में कोहरा हो जाए"
@ दीपक गौतम
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