धुंध जॉ उस रोज बहुत ज्यादा थी
|
-------
आठ नवंबर को रात 11 बजे घर (सतना) जाने के लिए औरंगाबाद से जलगांव रवाना हुआ, जहां से सुबह 5.30 बजे सतना जाने वाली ट्रेन पकड़नी थी। औरंगाबाद से जलगांव तक का सफर उम्मीद के मुताबिक ठीक 3.30 पर खत्म हुआ।
स्टेशन के अंदर दाखिल होने से पहले मैंने चाय के कुछ घूंट
लेना मुनासिब समझा। गाड़ी का इन्तजार प्लेटफार्म नम्बर तीन पर कर ही रहा था
कि सिर में कुछ तकलीफ सी महसूस हुई।। ठंडे पानी से गला तर करते हुए मुहं
धोया ही था कि उसी बेसिन के पास कदम लड़खड़ा गए। सम्भलते हुए अपने पैरों पर
खड़ा होने की कोशिश में था, तभी एक आवाज कानों में गूंजी आवारा आज चुक जाओगे
क्या ?
मैं लगभग पसीने से तरबतर था। छोटा स्टेशन होने और रात के कारण
चहल-पहल कम थी। किसी कदर इर्द-गिर्द की चीजों के सहारे खड़ा हुआ तो पाया कि
आंखों के सामने का अंधेरा और गहराता जा रहा है। जो एक बात दिमाग में थी वो
यही कि खुदा आज मत बुझा ये दीपक। एक दिन बाद मेरे फुलौरी पहला जन्म दिन
है। कमबख्त उसे आखिरी बार देखना भी नसीब नहीं होगा क्या?
जेहन में न जाने कितने खयालात और चेहरे थे उस एक पल। मैं
सम्भलता हुआ पास पड़ी कुर्सी पर बिछ सा गया। आसपास से गुजरते लोग धुंधले से
दिख रहे थे। यकायक मैं चिल्लाया मां...मां....मां। कुछ दूर बैठा एक अजनबी
जो रेलवे संचालित फूड एरिया में था मुझे देख और सुन रहा था। अंधेरे और धुंध
की परवाह छोड़ मैं उस झिलमिलाती सी मानव आकृति के पास लड़खड़ाते हुए पहुंचा।
शरीर साथ नहीं दे रहा था। सिर दर्द से फट रहा था और अंधेरा
बढ़ता जा रहा था। आंखों ने पानी छोड़ दिया था। न जाने क्या था अन्दर जैसे
किसी और रूह का कब्जा कि हिम्मत ने जवाब नहीं दिया। उस अजनबी से मैंने
छलकती आंखों के साथ कहा मुझे मौत करीब दिख रही है। लगता है जहरखुरानी का
शिकार हो गया हूं डाक्टर चाहिए बचा लो। उसने दो जीआरपी वालों को बुलाया।
टूटी-फूटी मराठी और हिंदी में दर्द के अन्दर तक घर करने के
बाद भी मैं बोलता रहा उन रेलवे पुलिसिया लोगों से। अंधेरा और गहरा रहा था
आंसू भी बढ़ गए थे। मैं धैर्य खो रहा था। जीआरपी जवानों के साथ स्टेशन
मास्टर के कमरे में पहुंचते ही जरा सी उम्मीद जगी। सारा हाल सिरे से फिर
उसे सुनाना पड़ा उसी पीड़ा को भोगते हुए।
तब तक किसी भी परचित से बात नहीं की थी। पाठक सर को फोन कर
हाल बताया, कि कहीं अगर खर्च हो गए, तो दो गज जमीन तो मिल जाएगी। पाठक सर
सारी रात जागते रहे जब तक मैंने ट्रेन पर बैठने और सुरछित होने की सूचना
नहीं दी। लगातार उनके फोन आते रहे। आंखों ने उस रात बहुत पानी छोड़ा दगाबाज
हैं साली, जरा सी उफ में बहने लगती हैं। घड़ी की सुई भाग रही थी, तब तक रात
काली होकर बीत चुकी थी सुबह के पांच बज रहे थे। स्टेशन मास्टर ने मेडिकल
सुविधा वहां न होने का खेद जताते हुए मुझे सिविल अस्पताल ले जाने के लिए
कहा।
मैं अड़ा रहा कि चुक जाना मंजूर है मुझे मगर ट्रेन नहीं
छोडूंगा। मेरे करेजे का जन्म दिन कैंसे छोड़ देता। कसम मोहब्बत वालों की वो
भी क्या लोग थे यार बोले ट्रेन रुकी रहेगी आप आइये इलाज कराकर। जीआरपी के
दो जवानों के साथ अस्पताल जाना हुआ और दो इन्जेक्शन के साथ कुछ कड़वी
गोलियां भी उस भली सिस्टर ने दीं।
उस दिन के लापरवाही भरे रूटीन में खाना केवल रात में हुआ था
सफर से ठीक पहले रात दस बजे, ऊपर से जलगांव में चाय भी काफी ले ली। नतीजतन
गैस ने सिर पकड़ लिया और अक्ल ठिकाने आ गई। वापस स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन
अपने इंतजार में थी।
बस प्यार से कुछ बोल ही तो बोले थे दर्द में। उन भले लोगों ने
अजनबी शहर में दिल खोलकर प्यार लुटाया। शुक्रिया जलगांव जिन्दगी उधार रही,
कभी करम हुआ हम पर तो तुम्हें भी इश्क से अपने मालामाल कर देंगे।। कसम
मोहब्बत की मोहब्बत से ही बच पाए खर्च होते-होते आवारा। वर्ना सब धरी रह
जाती यहीं आवारगी बुते-मजस्सम में राख बनकर।।।------------
0 Comments