मेरी आवारगी

"आवारा महबूब सा कोई महबूब नहीं मिलता"

"आवारा खुदा भी मिल जाता है ढूंढने पे दर-ब-दर, मगर महबूब सा कोई महबूब नहीं मिलता"

वो जो पहले होता है, सबसे पहले वो समझकर सोचकर नहीं होता। शायद वही होता है कर्रा प्यार। बस जो जैसा होता है हमें इतना पसंद आता है कि न जाने क्यों उसकी सारी बुराइयों के साथ हम उसे जीते हैं। वो रूहानी सुकून कहीं और नहीं मिलता। हां ये और है कि उससे कम ज्यादा किसी और से मिल जाये तो मिल जाये। वो भी मेहरबानी होगी इश्क वालों की। यहां दुकानें नहीं सजा करतीं कि पसंद का खिलौना खरीद लिया जाय। किस्मत के चार आनों से प्यार की दौलत नसीब होती है, फिर चाहे इश्क-हकीकी में खुदा से बगावत हो या दुनिया से। इश्कजादे उसकी परवाह नहीं किया करते। वो सबसे पहले फूटने वाला अंकुर न जाने कब बरगद हो जाता है पता ही नहीं चलता। छांव तो बेहद सुकूनदेय होती है, मगर इश्क की मजारों के ये दरख्त अक्सर सूख जाया करते हैं, जरा सी तपिश से। बड़ा नाजुक मिजाज बाग है ये। यहां पानी बूंद दो बूंद ज्यादा हो जाये तो फसलें उजाड़ और खेत बंजर हो जाते हैं। दूसरा दस्तूर ये भी कि कमबख्त सुकून गजब का पसरता है रूहों में। तलाश ठीक वैसे ही सुकून की होती है या उस जिस्मानी बू की जो गहरे तक कहीं रूह में धंस गई है। ''कहते हैं आवारा खुदा भी मिल जाता है ढूंढने पे दर-बदर, मगर महबूब सा कोई महबूब नहीं मिलता'' और चाहिए वही होता है हुनरमंदों को जैसा मिलना सम्भव नहीं। क्योकि कोई वैसा नहीं हो सकता ठीक वैसा कोई नहीं। ये और कि उससे ज्यादा या कम के लिए किस्मत मेहरबान हो जाए। मुझे उस किसी से शिकायत भी नहीं होनी चाहिये। उसने शायद बहुत कोशिश की होगी मेरे साथ जीने कि मगर उसे वो सुकून अता नहीं हुआ। ये और है कि उसके लिए सिर से पैर तक हर बार खुद को गढ़ना लाजमी न था। उसके सांचे और पैमाने पर मेरी संरचना खरी नहीं उतरी। आवारगी रास न आई या बेफिक्री। जब तक साथ रहा कभी लगा ही नहीं कि बेगाना होगा। वो जागना रातों का, एक छोटे से किस के किस्से को रात भर दोहराना। प्यार की थपकियों में मां सा प्यार। बहन सी देखभाल का जिम्मा जो कभी दिया नहीं गया उसे। पत्नियों सा प्रेम जो मांगा नहीं गया। खुद-ब-खुद बरसा हो निश्छल, ये सब जब चुक जाता है न जिन्दगी से तो फिर शुरू होती बगावत खुद से। ठुकराये जाने का दुःख, दर्द की इन्तहां और गहरे तक भरी वो बू आपको जीने नहीं देती। प्यार करना पड़ता है टूटकर तब दर्द होता है जीभर के जीने लायक। यूं ही महज अढाई शब्दों में जीने का सुकून अता नहीं होता बेमुरव्वत जिन्दगी में। कहने को तो बहुत कह गए हैं धुरंधर कि और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवाय तो पहले इस गलीचे में आये ही क्यों थे। क्या इश्क के फांकों ने दौलतमंद नहीं बनाया तुम्हें ? फिजूल इश्क को बदनाम करते हैं और आंसुओं को। अश्क तो जेवर हैं यहां और नगीनों की कमी नहीं, कभी इस गली से गुजरकर देखो मालामाल हो जाओगे.....आवारा।

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