मेरी आवारगी

मन का उजाला काफी है, मौत के बाद जीने के लिए

साभार गूगल

चले जाओ के फिर कोई बहाना करके मत आना, 
मैं जमींदोज ही रहना चाहता हूँ फिर कहीं बिखरने के लिए।
वो खिड़की पे अटका रात को आसमान से, 
टूटकर गिरा चाँद का टुकड़ा।
कमरे की सीलन में पड़ती सुबह की धूप, 
सहेज कर रखी है तुम्हारे लिए।
कभी इधर से गुजरो तो सितारों वाली वो रात ले आना 
आँख का पानी ठहरा है बहने के लिए।
वो नर्म रुई के फाहे सी हंसी रातें 
तुम्हारी बाजुओं में दम तोड़ न पा पाई, 
तुम्हें कैसे कहूँ कितनी बैचैन हैं 
अपनी सुबहों से मिलने के लिए।
फिर आओ घड़ी दो घड़ी बैठकर बातें करेंगे, 
जमाना गुजरा है आवारा सुकून से दो पल मरने के लिए।
अभी वक्त बहुत है मुझे राख होने में, 
तुमसे अलग होकर अब तो जिया हूँ खुद की शोहबत में, 
फिलवक्त किसी ख़्वाब की चादर में मेरा वजूद समेट लेना, 
सुना है मन का उजाला काफी होता है मौत के बाद जीने के लिए।

-26 जून 2014 
© दीपक गौतम
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