मेरी आवारगी

याद के बिछौने में नींद कहां आएगी ?

हमेशा जलती एक रात की तरह तुम।  साभार गूगल बाबा
औरंगाबाद डायरी 12.12.2012

सच कहा है शायद किसी ने यादों की कोई मौसम नहीं है, जी जलाने कभी भी चली आती हैं। कुछ जिंदगी में झरे उस वक्त की होती हैं, जिसमें हम अपने मिजाज में थे, कुछ बेमजे और बेमिजाज वाले दौर की होती हैं, बस हर वक्त कुरेदती रहती हैं, उन रिसते घावों को जिनका इस जीवन में भरना मुनासिब नहीं होता है। यूं तो रात सोने के लिए है, मगर जब उसमें जागने का अभिशाप मिल जाए तो नींद कोसों दूर हो जाती है और चैन किसी और की तकिए तले सोता है। खुद को जो मिलता है वो होता बेसबर चली आती यादों का बिछौना, जो ढकी-मुंदी पलकों पर बिछ जाता है।
यादों का अपना अस्तित्व है और उनके वजूद से वो बीता पल जिंदा हो उठता है, जिससे हम अपनी जिंदगी झाक पाते हैं। जब वो झरोखा खुलता है तो किसी टेली फिल्म की तरह आंखों के सामने चलचित्र जिंदा हो उठते हैं, वो तमाम किरदार अपने पूरे रंग में रंगते हुए हमें उसी धरा पर उतार लाते हैं। ‘‘कल ही की बात लगती है गांव का वो बूढ़ा बरगद, तुम्हारी गोद में सिमटा मैं, भविष्य के सपने, यर्थाथ से दूरी और जिंदगी के करीब होने वाले उस अहसास ने जब तुम्हारी आत्मा को छुआ था। मैं आज तक खुद को अभागा महसूस करता हूं तुम्हारी आंख से ओझल होते ही तुम्हारी जिंदगी से ओझल होने के लिए। तुम्हारी आत्मा की पवित्रता को जीने का शायद मुझमें साहस ही नहीं था। पांच साल तक दूर रहकर प्रेम का पराग साबुत रखने का करम कोई विरला ही कर सकता है। प्रेम को जीना तुम्हारे जाने के बाद ही सीख पाया हूं....हवा में बहता, पानी में तैरता, आग में तपता और आकाश में ठहरा वो रूहानी अहसास तुम्हारे जिस्म ही नहीं तुम्हारी आत्मा के पोर-पोर से रिसा है मवाद बनकर।
उस गुनाह कि माफी का न तो मैं हकदार हूं और न ही मांगना चाहता हूं, तुमसे मिली प्रेम की दौलत लुटाकर भी मैं मालदार हूं, क्योंकि वो अहसास अब जिंदा हुआ है, जिसे तुम्हारी रूह ने सालों पहले जज्ब कर लिया था। उस आंच में जलता तुम्हारा मन कब कुंदन हो गया था, मुझे पता ही नहीं चला। इतनी बेअदबी के बाद भी तुमने मेरे हर्फ अपने जिस्म पर ओढ़ रखे थे। मैं तो नया घोसला बुनने के चक्कर में महीन रेशमी तारों से बुने उस नीड़ से कब का उड़ चला था। तुम्हें पता है...मैं आवारा ही रह गया इस दयार में आकर भी, जो पास था उसे चीरकर अलग कर दिया और जो अपना न हो सका, उसे अपना बना लिया। ’’
आज फिर उसी बूढ़े बरगद के नीचे था... आंखों में नींद नहीं तुम्हारी याद भरी थी, शरीर के किसी पोर से गुनाहों का मवाद रिस रहा था, तो कहीं रूह के छालों से गर्म पानी बूंद-बूंद टपक रहा था। तुमसे इश्क इतना आसान नहीं है मेरी जान, लेकिन तुम्हारी आत्मा की पवित्रता को जरा सा भी पा गया तो उसकी अदालत में नफरत का तलबगार न रहूंगा। जीवन अब भी झरता है तुम्हारी पलकों के पोरों से, आंख की महीन पुतलियों से और उस बरगद के पास बिखरी उस सांसों से....फर्क सिर्फ इतना है कि अब तेरे होने का सुकून न होने से मिलता है।

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