साभार गूगल |
औरंगाबाद डायरी, नवंबर, 2014
बीते हफ्ते शहर बरस रहा था और मैं भी। ये बेमौसम बारिश मुझे ऐसी लगती है, जैसे आसमान से कोई याद बरस रही हो, तुम्हारा होना इस बेवक्त की बारिश में याद आता है। जीवन झरता रहा है छप्पर से टपकती बूंदों के साथ और मैं उसे पी जाना चाहता हूं। बरबस मैं उस वक्त गांव और बचपन से होता हुआ तुम तक पहुंच गया था। बड़े रोज बाद तुम तक पहुंचा और देर तक भीगता रहा उस बारिश के दिन में ठहरा।
मैं गांव के कच्चे घर की छप्पर से बारिश के झरते पानी को देख रहा था, जो उसके नीचे बने कच्चे चबूतरे में अपने निशान छोड़ रही थी। उसके ऊपर छापी गई मिट्टी धुलकर उसके वजूद को हल्का कर रही थी और गोबर से पोता गया चबूतरा धूसर होकर अपनी चमक खोता दिख रहा था। खपड़ा और घरिया से मिलकर बना हमारे कच्चे घर का खपरैल छोटी-छोटी नालियों की शक्ल में पानी की एक-एक कतार से लयबद्ध होकर नीचे गिर रहा था, उसके नीचे मैं कागज की नांव बहाकर सड़क पर उसे गड्डमगड्ड होता देख रहा था।
बचपन की बारिश से जैसे ही आगे बढ़ा तुम उसी छप्पर के नीचे खड़ी थी और मैं कुछ दूर पर एक टूटे खपरैल के नीचे खड़ा तुम्हें देख रहा था। वो भीगती शाम ऐसे ही किसी रोज तो थी न और तुमने इशारों से मुझे जाने के लिए कह दिया था। वो शाम बेमौसम बारिश में टपकती रही कोरे-कोरे जेहन पर सुर्ख और साफ। तुम यकीनन याद में सहेजकर रखने से आगे का फलसफा हो, तुमने बिना तन को छुए जितने गहरे तक मेरे जेहन को छुआ है, वो किसी बारिश से कम नहीं है। तुम्हारा बरसना अब बंद हो चुका है बस यूं ही कोई याद टपक जाती है कभी-कभी। ऐसी ही एक अधजली शाम तुम्हारा दुपट्टा हवा में धीरे-धीरे ओझल हो रहा था, हाथ में तुम्हारा आखिरी खत और जिंदगी की डायरी का अगला पन्ना लिखने के लिए मैं भोपाल की ट्रेन पकड़ रहा था। तुमने बार-बार कहा था, भोपाल जाकर पढ़ाई में मन लगाना और दिल मुझसे, लेकिन जिस ट्रेन पर मैं सवार हुआ वो भागती-दौड़ती जिंदगी में तुम्हें बहुत पीछे छोड़ गई। तुम्हारी लाख कोशिशों के बावजूद मैं उन फरेबी आंखों की साजिश में ऐसा उलझा कि तुम्हारा सिखाया जीने का सलीका ही भूल गया। अब गांव की गलियां और बेमौसम बारिश से उठता उन यादों का सोंधापन जी कचोटता रहता है, काश मैंने तुमझे कह दिया होता कि तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगा....और तुम्हारे दिया स्नेह जिंदगी का कर्ज है, जिससे उऋण होना संभव नहीं...।
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