उम्मीद की कोई किरण सी धूप; फोटो साभार गूगल बाबा |
जीवन में जब तुम नहीं रहे तो सिवाय तुम्हारे हर्फ लिए जीने के कोई चारा शेष नहीं रह गया। न जाने भविष्य में तुम्हारी छुअन और वो सुकून का अदद पल कभी नसीब हो या नहीं। फिलहाल तो इस जरा सी उलझी हुई जिंदगी में बेमजा जीने का मौसम है। हाँ ये बेमजा हो गई है...इस शहर की आबो-हवा में ही नहीं चौक-चौराहों और गलियों में भी तुम घुली हुई हो। कहीं भी जाता हूँ घड़ी दो घड़ी तन्हा होने के लिए तुम सामने आ जाती हो।
कल ही तो बैठा था बड़ी झील पर तुम्हारा लहराता आंचल चेहरा चूमते हुए गुजर गया। कितनी खुसनशीब शाम थी वो जब तुम्हारी गोद में पूरा जेहन सिमट गया था। न जाने कैसा आकर्षण गहरे तक पैठ कर गया है कि बेगानी होकर भी अपनी लगती हो। झील का बहता पानी जब किनारे पर अटखेलियां कर रहा था मेरे पैरों पर वो लहर महसूस हो रही थी। ऐसी ही किसी शाम तो हम बैठे थे पानी में पैर डालकर।
कितने पन्ने और शब्द लिखे मैंने तुम पर, कहीं मैसेज बाक्स में चिपटे पड़े हैं, तो कहीं अधूरे खतों की तरह डायरियों पर अधूरे छिटके हुए हैं। तुमने कभी कहा था कि खुद से प्रेम से करना सीख लूं ... उसका मर्म आज समझ पाया हूं। तेरी कजरी आंखों में शायद किसी का अक्स बसा ही नहीं, तभी तुम्हें समझ नहीं आया कि आखों की पुतलियों में खुद को देखना कितना सुंदर होता है। चलो मैं तो चल पड़ा हूं उसी धुंध की ओर जहां से खड़े होकर तुम्हें आवाज दी थी, तुम्हारे हर्फ साथ हैं...।।
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