मेरी आवारगी

कुछ अधबुना सा तुम्हारे लिए

तुम बसन्त और मैं 
खिलते रहेंगे खेत में 
फूली सरसों की तरह
जैसे फलता है अनाज 
और पकती हैं उम्मीदें

लहलहाते खेत से किसान 
का प्यार और जैसे जीवन 
वैसा ही दाना-पानी सा 
नाता है मेरा-तुम्हारा

मैं कोई प्रेम कविता 
नहीं कहना चाहता 
जहाँ प्रकृति और जीवन है
बस वही तुम्हें महसूसता हूँ

किसान की थकन में 
गाँव के गगन में 
फसल के चमन में 
और घर के सूने आँगन में 
हर जगह तो हो तुम 
अगर मिलना चाहूँ तुमसे

हम अक्सर ऐसे ही मिलते हैं 
और आगे भी मिलते रहेंगे 
हवा लाती रहेगी हर पैगाम
तुम्हारा और मैं सुनता रहूंगा 
तुम्हारा हर किस्सा गाँव के 
चौपाल में गिरे पीपल के पत्ते से

मुझे तो बसंत के इतर
पतझड़ में भी तुम दिखते हो
जब आम के बगीचों में 
पेड़ों से गिरते हैं पत्ते
मुझे सुनाई देती है तुम्हारी आवाज

बस मैं राग में नहीं खोजना चाहता 
तुम्हें, तुम वैराग भी गुथे हो मुझमें 
तमाम उलझनों और जिंदगी के सारे 
झमेलों के बीच बस प्रेम ही सच लगता
है मुझे, और वो तुमसे हो गया है।

-आवारा गाँव और तुम्हें याद करते हुए

गाँव में अपना खेत और उसकी मेड़ 

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