मेरी आवारगी

साहिर लुधियानवी की यौम-ऐ-वफ़ात पर ख़ास पेशकश (25-10-1980)

साहिर/ साभार उर्दू स्टूडियो 
दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है लौटा रहा हूँ मैं
साहिर लुधियानवी न सिर्फ़ गुज़रे वक़्त और अदब के सुनहरे दौर के बड़े नामों में से एक है बल्कि हर दौर और हर उम्र की नुमायंदगी कहने वाले शायर का नाम है।  वही शायर जो कभी अपने नाम, अपने फ़िल्मी गीतों तो कभी अपने कलाम से आज भी हमारे दिलों में जगह बनाये हुए है। साहिर के गीतों का जादू आज भी सर चढ़ कर बोलता है| इस दौर के युवा भी जब हिंदुस्तानी संगीत के सुनहरे दौर के गीत गुनगुनाते हैं, तो ज़्यादातर मामलों में वो गीत साहिर के होते हैं। "अभी न जाओ छोड़ कर", "कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है", "चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों" और भी न जाने कितने ही गीत किसी न किसी शक़्ल में हमारी रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में एक ख़ुशनुमा सौगात और यादगार की तरह लौट आते हैं। इंसानी जज़्बात, एहसासात और सामाजिक मुद्दों को मुख़्तलिफ़ आयामों में जलवागर करने की जो तकनीक साहिर के पास है, उसका जोड़ मिलना मुश्किल है।
तू हिन्दु बनेगा ना मुसलमान बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा
साहिर को महज़ उर्दू ज़बान का शायर कहना मुनासिब नहीं होगा, उन्होंने दूसरी ज़बानों और विधाओं जिसमें हिंदुस्तानी लोक गीत भी शामिल हैं में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। साहिर ने हर सिन्फ़ की शायरी की मसलन “संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे / इस लोक को भी अपना न सके, उस लोक में भी पछताओगे“,  “इंसानों ने पैसे के लिये आपस का प्यार मिटा डाला/ हंसते बसते घर फूंक दिये धरती को नर्क बना डाला”,  “ईश्वर अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान/ सबको सन्मति दे भगवान, सारा जग तेरी सन्तान।” इन गीतों में क़ाबिले-ज़िक्र बात ये है के ये हिंदी ग़ज़ल के नमूने हैं। गज़ल के मतले (प्रारंभिक शेर) और दोहे में बुनियादी तौर पर ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है। अगर फ़र्क़ है तो ये कि मतला कई बहरों में लिखा जाता है और दोहा एक छंद में | मतला और दोहा दोनों ही दो मिसरों से बनते हैं और संजीदा से संजीदा मौअक़िफ़ को समेट लेने में मुस्तैइद हैं। साहिर ने इस बात को साबित किया है के अगर हिंदी में दोहा लिखा जा सकता है तो गज़ल भी लिखी जा सकती।
काहे तरसाए जियरा,
यौवन ऋतु सजन जाके ना आए
नित नित जागे ना सोया श्रृंगार,
झनन झन झनन, नित ना बुलाए
साहिर ने गीत, ग़ज़ल व नज़्म के दायरे से निकल कर भजन को भी एक नयी शक़्ल देने में कामयाबी हासिल की है। ईबादत और इश्क़-ऐ-ईलाही के संगम से  कामिल भजन, नफ़ासत-ऐ-अलफ़ाज़ की वो तख़लीक़ है, जिसके ज़रिये से भक्त आलौकिक फ़िज़ा को हासिल होता है। हालांकि साहिर बुनियादी तौर पर उर्दू के शायर थे, फिर भी वो इस सिन्फ़ की शायरी में भी फ़ाज़िल नज़र आते हैं| भजन में अटूट इश्क़े-इलाही और सुपुर्दगी अहम् है, जिसे साहिर ने अपनी शख़्सियत और शायरी से साबित किया है। साहिर फ़िल्मी कहानी और स्क्रीनप्ले की बंदिश में रहते हुये भी ईबादत, बंदगी और रवायती हवालों को छोड़कर तफ़क्कुर और फ़ज़ीलत और इख़लाक़ का मुहावरा नहीं छोड़ते।
मन रे तू काहे ना धीर धरे
वो निर्मोही मोह ना जाने, जिनका मोह करे
हिन्दी फ़िल्म जगत की तारीख़ में साहिर एक सदाबहार और इल्हामी गीतकार की हैसियत से बहुत ऊंचे और मज़बूत नज़र आते हैं। साहिर ने फ़िल्मी गीतों को न सिर्फ़ एक नई दिशा दी बल्कि जनसाधारण की चेतना को एक नया नुक़्ता-ऐ-नज़र भी दिया। उनके गीतों की ख़ुसूसियत ये है के जहां एक ओर वो इंसानी अवचेतन मन की ग़ैर-महदूद धाराओं को अपने फ़िक्र-ओ-तसव्वुर से रोशन करते हैं, वहीं दूसरी ओर हक़ीक़त से भी बांधे रखते हैं | यह ख़ूबी उनके गीतों को मामूली से ग़ैर मामूली  बना देती है।
धरती की सुलगती छाती के बेचैन शरारे पूछते हैं
ये किसका लहू है कौन मरा
ऐ रहबर मुल्क़-ओ-क़ौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा
साहिर के गीत कभी प्रेमी-प्रेमिका की गुफ़्तगू, तो कभी मां और बेटे के रिश्ते का अपनापन; कभी इंकेलाबी के नज़रिये  मुहाविरा, तो कभी बच्चे के मन की सच्चाई; कभी फ़क़ीर की दीवानगी की शीरानी, तो कभी इश्क़-ऐ-इलाही में सुपुर्दगी के ज़रिये उरूज़-ऐ-ईबादत को  हासिल हो जाते हैं। साहिर की हर इक तख़लीक़ अदबी और फ़लसफ़े-ज़िन्दगी की हैसियत से लाजवाब है।
मज़हब-ए-इश्क़ की हर रस्म कड़ी होती है,
हर कदम पर कोई दीवार खड़ी होती है
इश्क़ आज़ाद है, हिंदू ना मुसलमान है इश्क़,
आप ही धमर् है और आप ही ईमान है इश्क़
जिससे आगाह नही शेख-ओ-बरहामन दोनो,
उस हक़ीक़त का गरजता हुआ ऐलान है इश्क़
साहिर की शख़्सियत बहुआयामी है, वो हर इंसानी रिश्ते को सच्चाई और अपनेपन की नज़र से देखते हैं और निभाते हैं। साहिर महज़ एक शायर नहीं बल्कि एक विचारधारा हैं, जिनकी शायरी आने वाली नस्लों के दिलों में नई उम्मीद की रोशनी जगायेंगी | साहिर आशावादी हैं और मुश्किल से मुश्किल हालात में भी उम्मीद की किरण देखते और दिखाते हैं। साहिर इंसानी मानसिकता की गहराईयों को निहायत ज़िम्मेदारी और नज़ाक़त के साथ छूते हैं | यही वजह है कि वो इंसानी जज़्बात और एहसासात की बेहतर तर्जुमानी नेकनीयती के साथ करते हैं और बार-बार एक सच्चे शायर होने का सुबूत देते हैं ।
इन काली सदियों के सर से,
जब रात का आँचल ढलकेगा
जब दुःख के बादल पिघलेंगे,
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा,
जब धरती नग्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
साहिर की ज़िंदगी आम रास्तों से गुज़रती हुई एक ख़ास ज़िंदगी है | उन्हें तल्ख़ तजुर्बों, नफ़्सियाती उलझनों ने झकझोड़ा तो ज़रूर, लेकिन वो हर बार एक विजेता की तरह उभरे। साहिर ने छोटी उम्र में मां पर वालिद के हाथों हुये तशद्दुद को देखा, पिछड़े ज़ातों के हुक़ूक़ की अवहेलना होती देखी, इसके बावजूद वो निराशावादी नहीं बने, बल्कि इंसानी सोच को अपने गीतों के ज़रिये नयी उम्मीदों के पैग़ाम देते हुये नज़र आते हैं|
साहिर के लिए उनकी मां उनकी ज़िन्दगी थीं। यही वजह थी कि उन्होंने अपने गीतों में औरत को एक ख़ास मक़ाम दिया। “औरत ने जन्म दिया मर्दों को/ मर्दों ने उसे बाजार दिया”,  “लोग औरत को फ़क़त एक जिस्म समझ लेते हैं”,  “माँगों का सिन्दूर ना छूटे/ मां बहनों की आस ना टूटे/ देह बिना भटके ना प्राण”, “मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी/ यशोदा की हमजिन्स, राधा की बेटी”  ऐसे जाने कितने ही क़रीने साहिर के गीतों में औरतों पर हुए ज़ुल्मों और ज़्यादतियों की आज़ुर्दा हालात को उजागर करते हैं।
लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
रूह भी होती है उसमे ये कहा सोंचते हैं
साहिर बनावट से दूर, कसरते-अलफ़ाज़ और इल्मे-अरूज़ की पेचीदगियों के बग़ैर दिल की गहराईयों से किसी मौज़ू को उठाकर उसे उसकी पराकाष्ठा तक ले जाते हैं । यही वजह है कि साहिर जुबान की बंदिश से परे एक पैने और असरदार शायर हैं।
नोट : यह पोस्ट फोटो सहित साभार उर्दू स्टूडियो के फेसबुक पेज से है। इसलिए इससे जुड़े तथ्य या कथ्य के सही-गलत पाए जाने पर किसी तरह के वाद-विवाद की जिम्मेदारी मेरी आवारगी की नहीं होगी।

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