मेरी आवारगी

विकास या विनाश ?


नागौद से जसो जाते वक्त सड़क किनारे लगे पुराने पेड़ों की बेरहम कटाई। 









मैं थका नहीं हूं, हारा नहीं हूं, बेचारा नहीं हूं।
मैं बूढ़ा भी नहीं, टूटा भी नहीं, गिरा भी नहीं हूं।
मैं काट कर कत्ल कर दिया गया हूँ, मार दिया गया हूँ।
दशकों से खड़ा था यहीं इसी सड़क के किनारे।
किसी को काले जामुन दिए, तो किसी को मीठे आम।
इस बार तो मुझे पूरा फलने भी नहीं दिया।
बहुत सी कच्ची रह गई जामुन, पूरे पक भी नहीं पाए आम।
मैं दरख़्त हो चुका था, शीतल थी मेरी छाया।
बहुत मीठे थे मेरे फल, कई पीढ़ियों ने यहां से आते-जाते चखा है उनका स्वाद।
मेरे हत्यारों ने भी तोड़कर खाये थे फल, मुझे हलाल करने से पहले।
तने से अलग होते वक्त, मैंने बस इतना ही सोचा कि शायद अब जरूरी नहीं रहा मैं।
न हवा साफ चाहिए इंसानों को न छाया, न बारिश, न खुशनुमा मौसम।
अब सबको चाहिए चौड़ी सड़कें, इमारतों और कांक्रीट के जंगल।
आज सड़क चौड़ी करने के लिए मुझे काटा।
कल महल बनाने के लिए काटा था।
खेती के लिए पहले ही जंगलों को काट चुके हो।
तरस जाओगे एक-एक बूंद पानी को और
सांस लेने लायक फिजा को ।
बना लो कांक्रीट के जंगल,
फिर नापते रहना एयर क्वालिटी इंडेक्स।
अभी एक ही दिल्ली है देश में सबसे जहरीली हवा वाली। फिर गांव भी नहीं बचेंगे जिनकी स्वच्छ हवा पर इतराते हो?
अब हमारा यहाँ कोई काम नहीं।
मैं तो कल भी अपने लिए नहीं फला, जो भी न कुछ लिया यहीं से लिया और अपना सर्वस्व यहीं दे दिया।
तकनीक की दुनिया में कई और रास्ते हैं विकास के।
जहाँ मेरे कत्ल की जरूरत न पड़े, मुझे बचाकर सड़क और इमारतें बन सकें।
क्यों नहीं खोजते ऐसे विकल्प ?
जिससे बचे रह जाएं मेरे जैसे कुछ और पेड़,
आने वाली कई पीढ़ियों के लिए सांसें,
बारिश की फुहारों में भीगती यादें,
याद रखना ! ये सब मेरे जाने के बाद हवा हो जाएगा !
ये तुम्हें तय करना है कि विनाश से उपजा विकास चाहिए या विनाश रहित विकास ?
मैं तो मरकर भी कहता हूं,
ले जाना मेरा तना और बाकी लकड़ी।
कोई दो-चार जोड़ी दरवाजे खिड़कियां तो बन ही जाएंगे, तुम्हारी इमारत में जड़ लेना,
सड़क के किनारे न सही !
तुम्हारे घर में रहूंगा सदा,
सूखकर भी तुम्हें सुरक्षा देता हुआ।
जब आए मेरी याद , घर के किसी दरवाजे पर सिर रखकर रो लेना !!
मैं हमेशा तुम्हें सहारा देता रहूंगा,
अपनी सूख चुकी लकड़ी के साथ...!!

-दीपक गौतम

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