मेरी आवारगी

तुम्हारी छुअन...!!

 अपने झुनझुने से कैद हुई भोपाल वन विहार की एक शाम

दूर तक फैला अंधकार
रात को चीरता सन्नाटा
आत्मा को भेदता मौन
जड़ हो चली देह के पार 
मृत्यु और जीवन के बीच
कहीं बची रह गई थी तुम्हारी छुअन
बर्फ से ठंडे हो चुके थे समय के बिंब
किसी एक बिंदु पर आकर ठहरा था मैं
तुम्हारे एक स्पर्श ने सब पिघला दिया है
सदियों से जमा अहसास का समंदर
एक साथ बह निकला है...
ये बाढ़ सी विपदा है...
बीते समय के रेशे उफनती नदियों की शक्ल में हैं
हां ये बारिशों का मौसम है...
लेकिन मुझे भीगने की इजाजत नहीं
यूँ ही देर तक तरबतर रहता हूँ...तुमसे दूर रहकर 
बस एक याद की बदरी है, जो झूमकर बरस जाती है...
यकीं दिलाती है कि तुम हो यहीं-कहीं
गर्म हथेलियों से भाप बनकर उड़ती 
तुम्हारी छुअन अभी भी ताजा है...
मैं तुम्हें हर बारिश में यूँ ही महसूस करता हूँ
प्रेम हमारे समय की धुंध में जज्ब हो चुका है
उसके हस्ताक्षर शाश्वत हैं...
इसे न मैं बदल सकता हूँ न ही तुम 
इस समय के पार भी प्रेम ही बचेगा
जो तुम्हारे दैवीय स्पर्श से उपजा है 
मैं इसी सम्मोहन में हूँ
ये धुंध और गहरी होने से पहले तुम चले आना...
मैं इन हथेलियों पर फिर तुम्हारा स्पर्श पाना चाहता हूँ।
मैं प्रेम का साक्षात्कार पाना चाहता हूं।
मुझे ये बारिशें अब अच्छी नहीं लगतीं
सिर्फ तुम्हारा...
सदैव तुम्हारा...आवारा
©दीपक गौतम



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