मेरी आवारगी

जब सालभर में भी दिवाली पर बच्चे घर नहीं आते...!!

फ़ोटो : हमारे झुनझुने से।

घर में जब अकेले रह जाते हैं त्यौहारों पर बुजुर्ग।
तब दादा-दादी की आंखों में उजियारा नहीं होता।
बूढ़ी आंखें तरस जाती हैं-अपनों का साथ पाने को।
जब सालभर में भी दिवाली पर बच्चे घर नहीं आते।


कोई छोटा बच्चा जब घर पर दिये नहीं जलाता।
ऐसे घरों को लाख दिये भी रोशन नहीं कर पाते। 
फिर सिमट जाती हैं खुशियां फोन की घण्टी पर। 
वो भी मुआं बस उधार सी ही मुस्कान लाता है। 
जब सालभर में भी दिवाली पर बच्चे घर नहीं आते।


फिर नहीं जल पाती है दिवाली पर चकली। 
न ही छुरछुरी की जगमगाहट वहाँ दिखती।
पटाखों की आवाज को तरस जाते हैं उनके कान।
किसी भी तरह की मिठाई उन्हें मीठी नहीं लगती।
जब सालभर में भी दिवाली पर बच्चे घर नहीं आते।


नहीं बनाए जाते घर पर किसी तरह के पकवान। 
अकेले खाने में पूरे नहीं होते माँ-बाप के अरमान।
फिर भी जब बजती है फोन की घण्टी। 
माँ-बाप कहते हैं-बेटा मिठाई खा लेना अच्छी-अच्छी।
बच्चों को कहां समझ आती हैं ये बातें सच्ची-सच्ची।
अकेलेपन और ऊब से सजती है फिर दिवाली। 
जब सालभर में भी दिवाली पर बच्चे घर नहीं आते।


 माँ-बाप एक नज़र में भांप लेते हैं 
बच्चों की हर मायूसी।
लेकिन बच्चे वीडियो कॉल पर भी नहीं देख पाते 
हैं माँ-बाप की उदासी। ।
ऐसे अक्सर फीका रह जाता है त्यौहार। 
जब सालभर में भी बच्चे दिवाली पर घर नहीं आते।


इस तरह की दिवालियों में रौनक नहीं होती। 
क्योंकि पसरा रहता है-एक अलग तरह का सन्नाटा। 
जो गहरे तक उतर जाता है-सूने मन के अंदर। 
कलेजे में उठती है-एक टीस कि बच्चे घर नहीं आए।
वो बस मन मसोस कर रह गये बिना त्यौहार मनाए। 
जब सालभर में भी दीवाली पर बच्चे घर नहीं आए।


दो टके की नौकरी में कुचल जाती हैं खुशियां।
सूना रह जाता है-घर का हर एक कोना। 
अक्सर यूँ ही मनती है उन घरों में दिवाली।
जहाँ बच्चे सालभर में भी घर नहीं आते।


दादा-दादी नहीं देख पाते पोते-पोतियों की मुस्कान। 
घुट कर रह जाते हैं उनके त्यौहार मनाने के अरमान। 
नहीं ले जा पाते बच्चों को गांव के बाजार। 
नहीं खरीद पाते बच्चों के साथ खुशियों के अंबार। 
जो ले आते थे उनके घर आने पर झोले में भरकर।
दुनियाभर का उजाला भी नहीं कर पाता
ऐसे वीरान घरों को रोशन। 
जब सालभर में भी दीवाली पर बच्चे घर नहीं आते।

©दीपक गौतम

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