सब बंट गया है हमारे बीच
मेरी खुद्दारी, तेरी लाचारी
तेरा मज़हब, मेरा रब
तेरी रोटी, मेरा मकान
उसकी दुकान, मेरे अरमान
मेरा यकीन, तेरा फरेब
मेरी जीत, तेरी हार
तेरी नफ़रत, मेरा प्यार
कहाँ रह गया है एक सा
सब टुकड़े-टुकड़े में सिमट गया है।
सीखचों में, बंद खोपचों में, गली-कूचों में
कुछ भी पहले सा नहीं है।
कोई स्मृति साफ नहीं है
सब धुंधला हो चला है।
इंसानियत ने पैर समेट लिए हैं।
दागदार हो गया है इसका दामन।
लाखों लोग जहरीली गैस से मर जाते हैं।
दोषी हवा में उड़कर आजाद हो जाते हैं।
लाश सड़ती रह जाती हैं अस्पतालों में
जैसे मर गई हो इंसानियत इंसानों में।
गरीबों के लिए जो खपा देता है जीवन
गरीबी में ही मरता है इलाज के बिन।
जो मर जाता है बचाता हुआ बचपन
तरस जाता है पाने को अपनापन।
देश-समाज का यही तकाजा है।
जिसने सँवारा इसे वही अभागा है।
फिर भी वक्त रह-रह कर जताता है।
कुछ है जो बचा है और बचा रह जाएगा।
जब टूट जाएगी हर उम्मीद
हर तस्वीर धूमिल हो जाएगी।
कहीं तो किसी आंख में पानी बचा रह जाएगा।
कोई तो होगा जिसने थाम रखी होगी सांसें।
कि नहीं अब भी नहीं मरी है मोहब्बत।
कुछ रूहें जिंदा रखेंगी इंसानियत।
वो जब तक हैं अमन कायम रहेगा।
तेरे-मेरे, अपने-अपने हर फरेब के बीच।
कोई यूँ भी होगा जो सबका निकल जाएगा।
जहां में प्यार बांटेगा, प्यार ही सिखाएगा।
न सही कोई गांधी, न सही कोई महात्मा।
फिर कोई इसी गंध से निकलकर
मरती इंसानियत की धुंध से निकलकर
'आवारा' किसी जहान से फिर कोई इश्क सिखाने आएगा।
©दीपक गौतम
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