मेरी आवारगी

इतना आसान नहीं है गाँव तुझे फिर पा लेना


अबकी सर्दियों में एक रोज खेत पर। फ़ोटो खैंचक : कक्का। 

एक दिन मैं लौट आऊंगा तुम्हारे पास। शायद तब सब कुछ पहले जैसा होगा। तुम्हारी थपकियों का दुलार मुझे फिर स्पर्श की लोरियों सा महसूस होगा। अगली सुबह की धूप सर पे गिरते ही मैं फिर किसी रत्न की तरह दमक उठूंगा। खुद पर मलूँगा वही सुनहरी धूप जो तुम्हारी मुंडेरों पर इठलाती फिरती है। वो मंद-मंद बहती हवा के झोंके जो तेरी हर गली की सौंधी खुशबू मुझ तक पहुंचाते हैं। एक रोज़ फिर से मेरे नथुनों पर मेहरबानी करेंगे। मैं वो झोंके फिर से महसूस करना चाहता हूँ। 

तुम मेरे अस्तित्व का भान हो,  तुम्हारी गंध लपेटकर ही तो अब तक जीता रहा हूँ तुमसे यूँ दूर रहकर। मेरी आत्मा में तुम्हारी सौंधी मिट्टी की एक बारीक सी परत जम गई है। क्या कहूँ गजब की ठंडक है इसमें और एक अलहदा सुकून देने वाली तपिश। मेरा यकीन मानो जब से इसे ओढ़ रखा है कितने मौसम आए और गए मुझे किसी और लबादे की जरूरत ही नहीं पड़ी। कभी-कभी तो लगता है कि इसी परत के नीचे सारा संसार है और एक दिन इसी में ख़ाक हो जाना है। यहीं से धूल का एक धुएं से भरा गुबार सा उठेगा और फिर यहीं बैठ जाएगा। सब शांत हो जाएगा। एकदम शांत, वैसा ही जैसे उस पुराने शिवालय के कुंड का पानी शांत है।

मैं जानता हूँ कि उस उस पुराने शिवालय का वो कुंड अब भी झरता रहता है, उसी के जल से तो शिव का जलाभिषेक होता है। मुझे अब तक याद है कि उसी शिवालय की छांव में तो गुजरे हैं बचपन के सारे मेले। मेरे लिए तो तब बसंत का मतलब ही गाँव का  मेला था। गाँव से दूर निर्जन में बैठे अवघड़ चौमुखनाथ (झिन्नन) पर बसंत पंचमी को जल चढ़ाना तो सिर्फ इसलिए भाता था कि नीचे जाकर कुंड से पानी लेना है। वहीं उस कुंड से रिसते पानी के बहाव से आकार ले चुकी छोटी से नदी को कौतुहल से देखना है। बड़ा अद्भुत लगता था कि इसी कुंड से निकली है ये छोटी नदी, जो अब  नाला हो गई है। जब सयाने कहते थे कि कभी यहां इतना गहरा पानी था कि तीन हाथी डूब जाते थे, तो यकीन करना मुश्किल नहीं था। क्योंकि हम खुद तो डूबते-उतराते थे वहां। जलक्रीड़ाओं के लिए उस पुराने शिवालय के पास का वो घाट अब भी मुझे डराता है, जैसे फिर न कहीं पैर फिसल जाए और अम्मा की मार पड़े।


अब उस सूख चुके नाले के किनारे पर लगातार बहती हैं बचपन की यादें। मैं वहीं बैठकर निहारता रहता हूँ वो याराने। वहीं उसी नाले के घाट पर खड़े कहवे के दो बड़े दरख़्त मुझे अब भी साफ-साफ नज़र आते हैं। उसी घाट के दूसरे छोड़ पर खड़ा वो इमली का पेड़ अब भी दांत खट्टे कर जाता है। राम-जानकी मंदिर के पीछे की वो खुफिया सुरंग का रहस्य अब भी रूह में सिहरन पैदा कर देता है। उसके अंदर जाने के उस दुःसाहस को वहीं रामजी के चरणों में रख दिया है। 

गाँव की पुरानी गढ़ी के अंदर वाली बेरियों के बेरों का स्वाद अब भी जबान पर है और वहां उड़ते चमगादड़ों की दुर्गंध से मन अब तक सना हुआ है। मंदिरों की भजन संध्या के बाद सयानों के होने वाले किस्से अभी तक कानों में घुले हैं। सच कहूँ तो मेरी स्मृतियों के संसार में इन सबका उजड़ना है ही नहीं, क्योंकि उसके पहले ही मैंने तुमसे विदा ले ली थी। दो दशक से ज्यादा हो गया तुम्हारे बाग-बगीचों की खुशबू में जीभर तर हुए। अमराई के वो बौराये से दिन जब गर्मियों की कड़ी धूप के थपेड़े भी रोम-रोम में जिंदगी का रोमांच भर देते थे। 

वो तालाब के किनारे की मेड़, हरी घास से लबालब वो मैदान, लहलहाते खेत, कई पुराने मंदिरों के बीच किसी नूर सी चमकती एक मस्जिद, उसके सामने का वो स्कूल और न जाने क्या-क्या...! उफ़ ! सब जस का तस है, एकदम ताजा। यूँ लगता है कि मैं एक पुरानी खिड़की के इस पार खड़ा हूँ और दो किंवड़ियाँ खोलते ही तुम्हारे अंदर दाखिल हो जाता हूँ। इसलिए लगता है कि गाँव इतना आसान नहीं है तुझे फिर पा लेना...!! तुम मेरी रूह में धंसी वो कील हो, जिससे रूहानियत का लहू टपकता है। मैं बस इसी से तरबतर रहना चाहता हूं।


- गाँव से दूर गाँव को जीता हुआ आवारा

© दीपक गौतम

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