मेरी आवारगी

दादा तुम कहाँ हो ?

ये वही राइटिंग पैड है, जिसने सोने नहीं दिया। इसमें कई बरसों की यादों का रंग और जंग अब भी ताजा है।
दादा की याद से सना एक वही लकड़ी का टुकड़ा। 



घड़ी की टिकटिक साफ सुनाई दे रही है। आधी रात गुजर  चुकी है और नींद आंखों से गायब है। बाहर मौसम बेहद खराब हो रहा है, जैसे इन दिनों अंदर का मौसम बेहिसाब उमड़ते-घुमड़ते तूफानों और अंधेरे में घिरा हुआ है। ठीक वैसा ही हाल घर के अंदर का है। बत्ती पहले ही गुल हो चुकी है और बादलों ने बेमौसम गरजना-बरसना शुरू कर दिया है। यूँ लग रहा है जैसे बरसती बूंदों के साथ कुछ और भी आसमान से बरस रहा है। यादों की एक बदरी ने जेहनी गलीचों को गीला कर दिया है। बाहर पसरे सन्नाटे को चीरते ये गरजते बादल अंतस को भिगो रहे हैं, हवा के तेज थपेड़े बेचैनियों को हवा दे रहे हैं।

सालों से रूह में जज्ब एक यादों का गुबार अंदर हिलोरें मार रहा है। भोपाल से रुखसती लिए 4 माह से ज्यादा का वक्त बीत गया है। वहां से कूच करते वक्त घर के सामान के साथ-साथ यादों की कुछ पोटली भी उठा लाया था। आज जब कुछ किताबें खोजने के बहाने बंद गठ्ठरों को खोला तो सालों से सहेजकर रखी गई एक बेजान सी चीज ने मुझे झगझोड़कर रख दिया है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इससे पहले कभी इससे सामना नहीं हुआ था। हर बार इसे देखकर सुखद अनुभूति ज्यादा होती थी, लेकिन न जाने क्यों आज इस काठ के 'राइटिंग पैड' को देखकर दिल पसीज गया। ये मेरे दादा का 'राइटिंग पैड' है, जिसे उनके बाद भैया ने और फिर मैंने इस्तेमाल किया। कई इम्तिहानों के पर्चे इसी पर कॉपी रखकर हल किए हैं। लगभग डेढ़ दशक से ये राइटिंग पैड मेरे साथ शहर दर शहर फिर रहा है और अब वापस सतना आ गया है। इस पैड ने याद दिला दिया है वो नाम, जिसे अब हम चाहकर भी ले नहीं पाते हैं। साकेत या अंटू   के यार दोस्त अब भी उसके बारे में अक्सर पूछते रहते हैं। दादा को बब्बा और बाई हमेशा पुत्तु या अंटू ही कहते थे। अफसोस कि वे दोबारा अपने पोते को देख लेने की अधूरी तमन्ना लिए ही दुनिया से विदा हो गए। दादा तुम्हें इतने सालों में हमारी याद आई हो या नहीं हम सब तुम्हें बहुत याद करते हैं। गांव का वो पीपल चौराहा तुम्हें याद करता है। वो तुम्हारे यार-दोस्त तुमसे गणित के सवाल टहलते हुए हल कराना चाहते हैं। तुम आ क्यों नहीं जाते कभी किसी गली-कूचे से निकलकर !

दादा तुम बहुत याद आते हो, लेकिन 2007 के बाद आज लंबे समय बाद तुम्हारे लिए आंखें पसीज आई हैं। यूनिवर्सिटी के दिनों में भोपाल में एक उदास शाम गांव-घर और अम्मा को याद करते जब दिल भर आया था। तब तुम भी बहुत याद आए थे और मैं खुली सड़क पर देर शाम एमसीयू के गेट से लेकर रचना नगर के अपने कमरे तक आंखों से बरसता हुआ ही गया था। तब भैया ने फोन पर दिलासा देते हुए कहा था कि ‘‘तू उसे याद मत कर जो हमें छोड़कर चला गया है। अपने मां-बाप को रोता-बिलखता छोड़ गया, वो हमारा कुछ था ही नहीं। अपना ध्यान रख और पढ़ाई करने गया है, तो उस पर मन लगा। वहां से कुछ बनकर निकल। अपने सपने पूरे कर। उसने तो बडे़ बेटे और भाई का कोई फर्ज ही नहीं निभाया।’’ उसके बाद से आज पहली बार लगभग एक दशक बाद तुम्हारी याद में दिल पसीजा है।
मुझे लगता है सारा दोष ई ससुरा कोरोना का भी है। इन दिनों न जाने दिल-दिमाग कौन-कौन सी याद की गलियों से गुजर रहा है।

ये भी गजब है कि आज मैं जिस शहर में बैठकर ये सब लिख रहा हूँ, यहीं इसी सतना से तुम आखिरी बार मई 1996 में रुखसत हुए थे और अब तलक नहीं लौटे! न जाने कहाँ हो ? किस हाल में हो? हो भी या नहीं ? हम तुम्हें याद भी हैं या नहीं ? हमें कुछ भी पता नहीं। मेरे और भैया के लिए तो तुम हमेशा दादा ही रहे हो। एक बडे़ भाई की तरह स्नेह और प्रेम की चाशनी से लबालब। तुम्हारी जितनी यादें जेहन में हैं, वो सब इस लकड़ी के छोटे से टुकडे़ ने दिल-दिमाग में कुडे़ल दी हैं। एक पिता सा स्नेह था तुम्हारे अंदर। मैं कुछ भी नहीं भूला...वो तुम्हारे पैरों में बैठकर झूला-झूलना, तुम्हारे साथ सुबह की सैर, रोज सुबह वो नीम की कड़वी गोलियां गटकना, शरारतों में पड़ने वाली अम्मा की मार से बचाना और किताबों से यारियां भी तो तुम्हारी देन है। तुम्हारा मुंशी प्रेमचंद जी और दूसरी किताबों वाला ज्यादातर कलेक्शन दीमक चाट गई, फिर भी जो बच सका है। मैने उसे सहेज रखा है। तुम्हें पता है तुम्हारे साथ छत की मुंडेर पर बैठकर दुनिया भर के सवालों के जवाब पा लेने की वो चाहतें अब भी जवान हैं। तुम मुझे संस्कृत पढ़ाना चाहते थे और खुद गणित को घोलकर पी गए थे। दादा मैं तुम्हारी इच्छानुसार संस्कृत पढ़कर प्रकांड तो नहीं हो पाया, क्योंकि तुम्हारे जाने के बाद वो भी जीवन से चली ही गई। शायद तुम्हारे अंदर गणित बची हो तो हिसाब लगाना कि हम सब के लगभग पिछले 25 साल तुम बिन कैसे कटे होंगे। तुम्हारे सारे टीचर अब तक कहते हैं कि "साकेत होता तो गणित के लिए कुछ न कुछ जरूर रचता।" न जाने तुम कहाँ हो और क्या रच रहे हो ? मुझे याद है कि गणित छोड़कर बाकी विषयों में हमेशा तुम्हारे नंबर कम आते थे। बोर्ड के इम्तिहानों में गणित में 100 में 99.9 और बाकी विषयों में पासिंग मार्क के भी लाले रहते थे। मुझे तुम्हारी वही छवि सबसे ज्यादा याद है, जिसमें तुम अपनी कुर्सी-टेबल पर बैठे देर तक गणित के सवाल हल करते रहते थे। जब भी घर पर होते तो कुर्सी-टेबल और सवाल-जवाबों से चिपके ही रहते थे।

तुम्हारे साथ हुई वो आखिरी नोंक-झोंक भी अब तक ताजा है। गांव से अपने इम्तिहान के लिए तुम सतना जा रहे थे और उसके पहले हम दोनों ने चौंके में साथ बैठकर खाना खाया था। तुम बैंगन के भुर्ते को मछली बोलकर मुझे चिढ़ा रहे थे। ज्यादा रूठ जाने के बाद तुमने गुड़ की एक ढेली देकर गोद में उठाकर मुझे मनाया था। मुझे याद है तुम उसके बाद फिर कभी गांव नहीं लौटे। आई तो बस तुम्हारी गुमशुदगी या कहीं चले जाने की एक खबर। मुझे याद है 7 वीं के इम्तिहान खत्म ही हुए थे और रिजल्ट आया था। उसी समय तुम्हारे क्लासमेट और गहरे दोस्त आशीष भैया अपने इम्तिहान देकर सतना से गांव लौटे थे। उन्होंने बताया था कि तुम बीएससी के इम्तिहानों में पर्चा देने के लिए नहीं बैठे हो। गाँव से सतना तो गए पर पर्चे नहीं दिए। सन 1996 की तपती मई के वो आखिरी दिन थे, जब ये खबर आई और आग की तरह पूरे गांव में फैल गई। गांव का कच्चा घर भी उन्हीं दिनों पक्का हो रहा था। मकान का काम ठप पड़ गया और देखते ही देखते घर में मातम पसर गया। मैं भी आंगन में बैठकर सिसक रहा था कि तुम तो इम्तिहान के बाद लौटने का बोलकर गए थे! आखिर क्यों नहीं लौटे? उसके बाद से अब तक साल दर साल तुम्हारी तलाश और याद का तो जैसे एक युग ही बीत गया है। सारी कोशिशें नाकामयाब और नतीजे सिफर रहे हैं। फिर भी उम्मीद के दिये हमारे दिलों में रौशन हैं कि शायद तुम कभी लौटकर आओ।

दादा तुम्हें तो पता भी नहीं होगा कि कई साल हम सब ने तुम्हारी खोज में बस यूं ही नीरस का जीवन बिताकर निकाल दिए। हर होली-दीवाली आंसुओं में डूबी होती और पकवानों को खाने से पहले तुम्हारी याद के आंसू गटके जाते थे। परिवार के दूसरे बेटों की शादियों पर अम्मा-पापा तुम्हें ही याद करते और कहते कि अंटू होता तो अब उसकी भी शादी कर देते। तुमने तो जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही हमसे विदा ले ली थी। अब यदि कहीं होगे तो यकीनन 40 के पार होगे। तुम्हारे जाने के बाद बहुत कुछ बदल गया है। तुम्हें तो पता भी नहीं होगा कि अम्मा अब भी नींद से चौंककर उठ जाती हैं और पापा तुम्हें याद करके सबके सामने आंसू छुपा लेते हैं। बुआ-फूफा, मामा-मामी, चाची, भैया और जिज्जी से लेकर बाकी सब भी तुम्हें हमेशा याद करते हैं। न जाने तुम कहां हो ? तुम्हारे आने की कोई खबर न सही कम से कम न होने की ही खबर आ जाए, तो दर्द से थोड़ी राहत मिले। कभी-कभी लंबे इंतजार और झूठी उम्मीद का बने रहना भी बहुत तकलीफ देता है। जानते हो बड़े भाई दर्द जब तक आंसू बनकर आंख की पोर से नहीं टपक जाता, रूह बेचैन और जिस्म बेजान रहता है...!! लव यू 💝

-(बेमौसम बारिश की तरह बरसती यादों के साथ एक रात)

© दीपक गौतम

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