मेरी आवारगी

हे ईश्वर तुम कहाँ हो ?


 चित्र साभार : गूगल (मप्र के गुना जिले के ग्राम देवीपुरा टोडरा में स्कूल के शौचालय में बने क्वॉरेंटाइन सेंटर में मजदूर)

शौचालय में खाना खाने को मजबूर मजदूर परिवार। 

तुम धड़कनों का नाद हो, जीवन का संगीत हो, आत्मा का राग हो, प्रेम तुम्हीं से उपजा है। जीवन के सारे छंद तुम्हीं से निकलते हैं। तुम्हीं आदि हो तुम्हीं अनंत ! हर मन के कोने में फैले उजियारों का तुम एक अनंत स्त्रोत हो। दुनिया में पसरे सारे अंधियारे को योगी-मनीषी तुम्हारी आंख का कजरा कहते हैं...अगर दिन भी तुम रात भी तुम, पाप भी तुम पुण्य भी तुम। राग भी तुम वैराग भी तुम...जीवन का अनुराग भी तुम। जीत भी तुम हार भी तुम। शंका भी तुम, समाधान भी तुम। जीवन का आधार भी तुम, स्तम्भ भी तुम। दीनन के पालनहार भी तुम, सब के खेवनहार भी तुम, दुखियन के संसार भी तुम। हर रिक्त हो चले जीवन का प्रकाश भी तुम अंधकार भी तुम। तुम्हारे अलावा यहां कुछ भी तो नहीं। सब तुम्हीं में निहित है, ये प्रेम भी तुम...संताप भी तुम। स्वामी भी तुम...दास भी तुम। नर्क भी तुम स्वर्ग भी तुम। दर्द भी तुम...दवा भी तुम, हाक़िम भी तुम हक़ीम भी तुम। आकार भी तुम प्रकार भी तुम...निर्विकार भी तुम। सगुण भी तुम निर्गुण भी तुम। राम भी तुम...राहीम भी तुम। ...तो फिर इस त्रासदी में मर रही मानवता के जिम्मेदार भी तुम। हमारी आंखों में सूख चुके पानी के जवाबदार भी तुम। तुम्हारी सबसे खूबसूरत रचना के इस भीषण विनाश का आशीर्वाद भी तुम...अभिशाप भी तुम।


हे सर्वशक्तिमान फिर तुम्हीं बताओ तुम्हारे रचे इस वरदान  का अंत भला यूँ होगा। क्या मज़दूर की भूख में तुम नहीं हो, क्या उसके परिश्रम में तुम नहीं हो ? क्या उसकी करुणा में तुम नहीं बसते ? क्या उसकी श्रम साधना में भक्ति नहीं है ? उसका सन्यास तो योगियों-मनीषियों से आगे है। वो तो कर्म-सन्यासी है। उसी ने धरा को रहने लायक बनाया है, तुम्हारे रचे का उसने ही तो मान बढ़ाया है। कविवर रामधारी सिंह दिनकर जी ने इन्हीं श्रम साधकों के लिए लिखा है, " मैं मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या, मैंने अगणित बार धरा पर स्वर्ग बनाए"। इसी कविता के अंत में वे कहते हैं "अपने घर के अंधकार की मुझे न चिंता, औरों के घर पर मैंने दीप जलाए"। इतनी पावन भावना से बस एक तुम्हारे सहारे ही तो अपने गांव-घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर दुनिया को और खूबसूरत बनाने के लिए वो अपना हाड़-मांस दिन-रात गलाता है। न जाने कितने खेतों में अन्न उगाकर उसने लाखों पेट भरे। न जाने कितने कुएं खोदकर लाखों की प्यास बुझाई। क्या चंद पैसे इस मानव-सेवा की भरपाई कर सकते हैं। नहीं...कभी नहीं। गुणीजन कहते हैं कि "मानव सेवा ही माधव सेवा है", फिर तो मजदूर से बड़ा कोई मानव-सेवक मुझे नज़र नहीं आता है। उससे बड़ा श्रम-साधक कोई नहीं है, उससे बड़ी किसी की भक्ति नहीं।

हे ईश्वर फिर क्यों आज सबसे ज्यादा संकट तुम्हारे इसी भक्त पर है और तुम उसकी भक्ति की लाज भी नहीं रख रहे हो। इतने निष्ठुर न बनो। तुम्हारी आंखें कैसे ये दृश्य पचा जाती हैं कि वो कूड़े के ढेर से केले उठाकर खा रहा है, तो कहीं भूख से रोता-बिलखता घिसट-घिसटकर घर की ओर पैदल जा रहा है। कहीं सब्जी-भाजी की तरह बसों और ट्रेनों पर लदा दिखता है, तो कहीं शौचालयों में रहने को जगह पाता है। ऐसे हृदय विदारक दृश्य देखकर भी तुम नहीं पसीजे ! श्रमयोगियों के सन्यास का तुम यही फल दे रहे हो। ऐसे निर्दयी न बनो...इस घोर तमस से जी भर गया हो, तो प्रकाश की ओर ले चलो। 
श्रमयोगियों के आंखों से आंसू बनकर भी तुम ही बह रहे हो, तो फिर हंसी बनकर क्यों नहीं खिल जाते ? कैसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है तुमने। मृत्यु का शोक मनाने, अर्थियों को कंधा देने और लाशों को दफ़न करने के लिए चाहकर भी लोग जुट नहीं पा रहे हैं। आंसू भी अब तस्वीरें देखकर बहाने पड़ रहे हैं। अपनों का कंधा भी नसीब नहीं हो पा रहा है। अपनों का जादुई स्पर्श तो जैसे किसी अभागे को अचानक मोती मिलना हो गया है।

अब जब निराशाएं स्थायी सी होती जा रही हैं। आशा और उम्मीद किसी जलते-बुझते बल्ब कि तरह आ-जा रही हैं। मन की इस गति के उस पर ले चलो भगवन। तुमने तो बड़ी से बड़ी विपदाओं से इंसान को पार लगाया है। तुम तो घुप्प अंधेरे के बीच उजास की पहली किरण हो। ये अंधेरा और घना होता जा रहा है, रौशनी का इंतजार लंबा हो चला है। इन घने काले बादलों को चीरकर तमस से मुक्ति दो। लाखों-करोड़ों आंखों का रोना और हंसना तुम्हीं से है, उनकी हंसी में हंसने का कुछ जतन करो और उनके रोने में शामिल हो जाओ.. परमेश्वर। मुझे पता है तुम सहस्त्रों कोटि दियों की रौशनी से तरबतर हो। तुम्हारे नूर की बारिश से रूहानियत का आब टपकता है। अपने उजियारे से संसार कानअंधियारा हरो। दुनिया तुम्हारे प्रेम, आस्था और विश्वास से अब भी लबरेज है। इसे टूटने मत देना...ये असहमतियां तुम्हीं से उपजी हैं...फिर भी हे ईश्वर अब तुम्हारा ही सहारा है...!!

- एक लम्बी चली मानसिक उधेड़बुन का नतीजा।

© दीपक गौतम
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