मेरी आवारगी

सब बेरोज़गार हैं, बस मौत का कारोबार चल रहा है !

तस्वीर साभार गूगल

इन दिनों तो यूँ लगता है जैसे सब बेरोज़गार हैं, बस मौत का ही कारोबार चल रहा है। वो आती है और चट कर जाती है। कहीं पटरी पर सोये मजदूरों के हृदय विदारक दृश्य हैं, तो कहीं ट्रक के नीचे आ गए मजदूरों का मातम है, कहीं अचानक रात में गैस लीक होने से काल के गाल में समा गए बेबस लोग। हर तरफ बस मौत पसरी है और दुनिया उसकी छाया में रहकर जीने को मजबूर है। 

मौत का सबसे विभत्स रूप इस सदी के 20 वें साल में देखने को मिल रहा है, जब कोरोना संक्रमण से मर रहे अपनों के शव भी नसीब नहीं हो रहे हैं। पहले मौत कम से कम मुर्दा तो सौंप ही जाती थी, उससे चिपटकर फूट-फूटकर रोने-बिलखने के लिए। अब तो दर्द का गुबार फूटने के लिए बेताब है, लेकिन रोने के लिए कोई कंधा भी नसीब नहीं है। शायद मानव सभ्यता के इतिहास का पहला क्षण है, जब सांत्वना, संवेदना, करुणा, प्रेम और दया जैसे भाव अब केवल आँखों से प्रकट हो रहे हैं। इन भावों के प्रदर्शन की स्पर्श वाली वो चिरपरिचित शैली अब धीरे-धीरे गायब हो रही है। पता नहीं आने वाले सालों में गले लगाना, आत्मीयता से छूना बचा भी रह जाएगा या नहीं।

अपने प्रियजनों, परिजनों, परिचितों, प्रिय लेखकों और पसंदीदा कलाकारों की मौत पर ही नहीं, उनकी अंतिम यात्राओं में भी मुर्दा शांति पसरी मिलती है। अब सबकी मौत के बाद के नज़ारे समान हो गए हैं, पहले कहते थे कि फलां प्रसिद्ध व्यक्ति की अंतिम यात्रा में सैकड़ों लोग जुटे थे। अब मौत ने अपना तरीका बदल दिया है, वो सामान्य रूप से प्राण हरने के बाद भी गिने-चुने लोगों को ही मृतक के पास इकट्ठा होने देती है। बीते चार से पांच माह तो जैसे जिंदगियों को बिखेरने के लिए ही आये थे। ये साल त्रासदियों का साल है, खौफ़ का साल है, हर तरफ पसरे सन्नाटे के बीच उत्सव मनाती मौत का साल है। यूँ तो आदमी पहले भी मरता था, लेकिन मौत का ऐसा खौफ़ नहीं था।

 मुझे याद नहीं कि इससे पहले मौत के आंकड़ों को कब सूचना-संचार के माध्यमों से इतना पढ़ा, देखा और सुना गया है। अब तो सूचनाओं ने भी क़त्ल करना शुरू कर दिया है। जीवन कोरोना पॉजिटिव, कवारेंटाइन, कोरोना हॉट स्पॉट, रेड जोन, ऑरेंज जोन, ग्रीन जोन और जैसे नए-नए शब्दों को समझने के लिए मजबूर है। हमें मज़दूरी, बेबसी, भूख, लाचारी जैसे शब्द डरावने लगने लगे हैं।

ये 2020 का साल मानव समाज की सबसे क्रूर स्मृतियों का काल घोषित किया जाना चाहिए, जिसने बिना किसी विश्व युद्ध के लाखों लोगों की जिंदगियों को मौत के आंकड़ों में तब्दील कर दिया है। ये साल दुनिया का कलेजा चीरकर अपने हिस्से का खून से सना इतिहास मांगने आया है। इसके हिस्से में कोरोना महामारी ही नहीं,  बल्कि उससे उपजी भीषण त्रासदी के लाल धब्बे भी हमेशा रहेंगे। इस दौर में जीवन के खत्म हो जाने की सबसे भीषण और करुण कहानियां जन्म ले रही हैं, जिन्हें कोई रचनाकार नहीं ये दौर, ये समय, ये हालात पैदा कर रहे हैं। ध्यान से सुनेंगे तो सुनाई देगी उस मजदूर की आत्मा से उठती टीस जो सैकड़ों किलोमीटर भूख से रोते-बिलखते हुए पैदल चल रहा है, उसकी जिंदगी का हर एक लम्हा इस समय की सबसे क्रूर कहानी गढ़ रहा है। 

अपने घरों से दूर रहकर जिन शहरों को सुंदर और भव्य बनाया, वहीं बेबसी में दम तोड़ते मजदूर ! तो कहीं पेट में 7 माह का बच्चा लेकर सैकड़ों किलोमीटर लगातार पैदल चलती असहाय और लाचार माँ। शौचालय  में खाना खाने और सोने के लिए बेबस मजदूर!  सरकारों की ओर टकटकी लगाए देखता असहाय मजदूर! रातोंरात जबरिया कहीं एक जगह ठेलकर घर जाने से रोक दिया गया मजदूर! मरती संवेदनाओं के बीच अपनी बेबसी में लिपटा असहाय मजदूर ! हमारी तमाम कोशिशों को अपनी पैदल यात्रा से लजाता मजदूर ! निर्लज्जता और लाचारी के लिहाफ़ में लिपटी हमारी संवेदनाओं में तिल-तिल करता मरता मजदूर ! कुछ कहानियां ऐसी भी हैं, जो सामने नहीं आएंगी। लेकिन किसी न किसी सीने में वक्त के धारदार ख़ंजर से उकेर जरूर दी गई होंगी।

इस दौर में ये बस जिंदगियों के खत्म होने की नहीं, बल्कि मौत से जंग लड़ने की भी कहानियां हैं। उनके पार जाने की भी कहानियां हैं, हमारी कमतर और कमजोर ही सही पर की जा रही कोशिशों की भी कहानियां हैं।  क्योंकि इन्हीं से मानवता के जीतने और मौत को हरा देने वाले दृश्य आकार ले रहे हैं, वास्तव में ये जिंदगी के उत्सव की कहानियां हैं। इंसान इन्हीं सबल कोशिशों के लिए जाना जाता रहा है। ये वक्त अपनी सबल और समर्थ कोशिशों से ज्यादा से ज्यादा सहायता, समर्पण, त्याग और बलिदान की कहानियां गढ़ने का भी है, ताकि बची हुई पीढ़ियां हमें धिक्कार नहीं गर्व के साथ अपनी स्मृतियों में सहेज सकें।

© दीपक गौतम
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