मेरी आवारगी

तीसरा दिन - लघुकथा


ये उन दिनों की बात है, जब दो दोस्त डीकू और मीकू एक अजीब सी ऊब में फंस गए थे। सबकुछ होते हुए भी उनका जीवन निराशा से भर गया था। वे करीब 22 से 24 साल की उम्र के छोकरे थे, जिनके सपने गांव से बाहर निकलने के थे। यूं भी नहीं था कि कोई तकलीफ थी, बस उस जिंदगी से कहीं दूर भाग जाने की दिली तमन्ना थी, जो वो जी  रहे थे। क्योंकि उनके लिहाज से जिंदगी बाहर कुलांचे मार रही थी और वो एक छोटे से गांव में फसे हुए थे। उन्हें क्या पता था कि उनकी जिंदगी के आने वाले तीन दिन उन्हें हमेशा के लिए बदल देंगे। 

साल 2003-04 के सितंबर या अक्टूबर माह का कोई दिन था, जब वे एक मुफीद बहाना बनाकर अपने गांव से मुंबई जाने के लिए रवाना हुए कि उनके भाग जाने का किसी को शक ही नहीं हुआ। उल्टे घर सेे रास्ते के लिए खाने का सामान लेकर निकले। वो नासिक में होने वाली सेना की भर्तियों में शामिल होने का बहाना बनाकर निकले थे। वो अपनी-अपनी पुरानी जिंदगियों को छोड़कर हमेशा के लिए निकल चुके थे। कम से कम उनका इरादा तो यही था। इसके लिए उन्होंने अपने एक ऐसे ही दोस्त गोलू को चुना, जो उनका काॅमन फ्रेंड था और गांव की सरहदों से कब का बाहर निकल चुका था। गोलू ने अपने पैर माया नगरी मुंबई के अपराध जगत में गहरे जमा लिए थे। बीते दिनों जब वही गोलू गांव आया था, तो डीकू और मीकू को मुंबई आने का आॅफर, अपना पता और मोबाइल नंबर दोनों देकर गया था। गोलू के पास 100 के नोटों की लहरातीं गड्डियां देखकर ही डीकू और मीकू ने गांव से बाहर कदम रख दिया था। 

वो मध्यप्रदेश के एक छोटे से गांव से सतना पहंचकर अब मुंबई के लिए रवाना हो चुके थे। अगली सुबह मुंबई पहुंचकर उन्होंने गोलू के मोबाइल नंबर को पब्लिक बूथ से डाॅयल किया, लेकिन नंबर बंद होने से संपर्क नहीं हो सका। ये एसटीडी/पीसीओ का दौर था, उन दिनों मोबाइल तक हर किसी की पहुंच नहीं थी। इनकमिंग काॅल के भी पैसे लग़ते थे और काॅल रेट आसमान पर थे। बावजूद इसके गोलू मोबाइल धारक था। आखिरकार गोलू का दिया पता काम आया और उसे खोजते-खोजते देर शाम वे मुंबई के सीएसटी स्टेशन से गोलू तक पहुंच सके। लेकिन वहां का नजारा देखकर तो डीकू और मीकू के होश ही उड़ गए।


दरअसल, ये बंबई के कल्याण ईस्ट में मौजूद एक चाल थी, जहां एक छोटे से 10 बाई 10 के दड़बे में 4 लोग रह रहे थे। फिलहाल यात्रा की थकान उतारने के लिए डीकू और मीकू ने सार्वजनिक स्नानागार का इस्तेमाल किया। नहाने के बाद रेल की जनरल बोगी में किए गए थकाऊ सफर से उन्हें राहत तो मिली, लेकिन वे भविष्य को लेकर चिंतित थे। रात के खाने के दौरान डीकू और मीकू ने गोलू से कहा कि हम यहां तुम्हारा गिरोह ज्वाइन करने आए हैं। गोलू एकदम से सन्न रह गया, फिर कुछ देर बाद बोला कि अभी सो जाओ कल सुबह देखते हैं। अगली सुबह दूसरे दिन गोलू ने डीकू और मीकू को साथ लेकर पूरी मुंबई की सैकड़ों इमारतों के चक्कर लगवाए। हर इमारत के नीचे उन्हें खड़ा कर कहता कि ये फलां दादा या डाॅन का ऑफिस है। मैं ऊपर जाकर तुम्हारे लिए काम की बात करके आता हूं। वो पूरा दिन यूं ही गुजर गया, डीकू-मीकू की किसी भी डाॅन के दफ्तर में इंट्री नहीं हो सकी। दूसरे दिन भी यही सिलसिला चला और आखिरकार गोलू ने नतीजा निकाला कि डीकू और मीकू को वापस गांव लौट जाना चाहिए, क्योंकि आगामी गणपति के त्यौहार के चलते पूरी मुंबई हाई अलर्ट पर थी। ऐसे में सारे दादा और डाॅन अंडरग्राउंड थे। इसलिए गोलू की सलाह थी कि डीकू और मीकू को वापस गांव लौट जाना चाहिए। 

गणपति का त्यौहार निकलने के बाद जैसे ही अपराध जगत पर पुलिस का शिकंजा ढीला होगा, कामकाज फिर शुरू हो जाएगा। इसलिए दूसरे दिन को रात नौ बजे गोलू ने आनन-फानन में डीकू-मीकू के लिए मुंबई से सतना के दो टिकट खरीदे और उन्हें ट्रेन पर बिठा दिया। अगली सुबह तीसरे दिन डीकू-मीकू अपनी हसरतों का बोझ लिए अपरोधबोध से ग्रसित होकर सतना से होते हुए वापस गांव पहुंच चुके थे। उन्हें समझ आ गया था कि अचानक तकदीर बदलने की उनकी ख्वाहिश, उनके सपने, उनकी हसरतें यूं पूरी नहीं हो सकतीं। सफलता का कोई शाॅर्टकट नहीं है और यदि उसका सहारा लिया जाता है, तो आदमी गुनाह के दलदल में फस जाता है। इस तीसरे दिन ने उन्हें जिंदगी की नई सुबह का अहसास करा दिया था। उन्हें पता लग चुका था कि खुद गणपति बप्पा ने ही उन्हें अपराध के रास्ते में जाने से रोक दिया है।

© दीपक गौतम
5 मई, 2020

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